मूल श्लोक:
धृतराष्ट्र उवाच —
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥1॥
शब्दार्थ:
- धृतराष्ट्र उवाच — धृतराष्ट्र ने कहा
- धर्मक्षेत्रे — धर्म की भूमि में
- कुरुक्षेत्रे — कुरुओं के क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में
- समवेताः — एकत्र हुए
- युयुत्सवः — युद्ध की इच्छा रखने वाले
- मामकाः — मेरे (धृतराष्ट्र के) पुत्र
- पाण्डवाः — पाण्डु के पुत्र
- चैव — और भी
- किम् अकुर्वत — क्या किया
- संजय — हे संजय!
धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात्, मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

विस्तृत भावार्थ :
यह श्लोक भगवद्गीता का पहला श्लोक है और इसके द्वारा पूरे ग्रंथ का प्रवेश द्वार खुलता है। यह संवाद प्रारंभ करता है जो संजय और धृतराष्ट्र के बीच चलता है। यह संवाद युद्ध भूमि में घट रही घटनाओं का वर्णन करता है, जिसे संजय दिव्य दृष्टि के माध्यम से देख और सुना रहे हैं।
धृतराष्ट्र, जो अंधे हैं — न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि कहीं न कहीं मानसिक और नैतिक दृष्टि से भी — अपने मंत्री और सारथी संजय से प्रश्न करते हैं। यह प्रश्न सतही तौर पर एक सामान्य जिज्ञासा जैसा लगता है, लेकिन इसमें कई गहरे अर्थ छिपे हुए हैं।
1. ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ — स्थान का महत्व:
यह युद्धभूमि सिर्फ एक रणभूमि नहीं, बल्कि ‘धर्मक्षेत्र’ है। यह कुरुक्षेत्र, एक पवित्र तीर्थभूमि है जहाँ अनेक यज्ञ, तप, और धार्मिक अनुष्ठान संपन्न होते रहे हैं। इसे ‘कुरुक्षेत्र’ कहा गया क्योंकि यह कुरु वंश का क्षेत्र है।
यहाँ ‘धर्मक्षेत्र’ शब्द बहुत कुछ कहता है — यह केवल भूमि नहीं है, बल्कि एक चेतावनी भी है कि इस युद्ध में धर्म और अधर्म की परीक्षा होगी। यह केवल हथियारों की नहीं, सिद्धांतों और मूल्यों की भी लड़ाई है।
धृतराष्ट्र को इस भूमि के ‘धर्मक्षेत्र’ होने से चिंता है। उन्हें भय है कि कहीं यह धर्मभूमि उनके पुत्रों के पक्ष में नहीं हो जाए। क्योंकि वह जानते हैं कि उनके पुत्रों ने अधर्म के मार्ग का अनुसरण किया है — पांडवों के साथ अन्याय, द्रौपदी का चीरहरण, छल और कुटिलता।
2. ‘समवेता युयुत्सवः’ — उद्देश्य का संकेत:
धृतराष्ट्र पूछते हैं कि दोनों पक्ष, जो ‘युयुत्सवः’ अर्थात् ‘युद्ध की इच्छा रखने वाले’ हैं, जब वे इस धर्मभूमि में एकत्र हुए, तो उन्होंने क्या किया?
यहाँ ‘युयुत्सवः’ शब्द से स्पष्ट होता है कि दोनों पक्ष युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हैं। युद्ध टालने की संभावनाएँ समाप्त हो चुकी हैं। जो थोड़ी बहुत उम्मीद शांति की थी, वह श्रीकृष्ण के शांति प्रयासों के असफल होने के बाद खत्म हो चुकी थी।
3. ‘मामकाः पाण्डवाश्चैव’ — पक्षपात की झलक:
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण शब्द है ‘मामकाः’ — मेरे। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को ‘मामकाः’, यानी ‘मेरे’ पुत्र कहते हैं, और पाण्डवों को ‘पाण्डवाः’, यानी पाण्डु के पुत्र।
यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि वह दोनों पक्षों को एक समान नहीं मानते, यद्यपि पांडव भी उनके भाई पाण्डु के पुत्र और उन्हीं के राज्य के उत्तराधिकारी हैं। इस भेद की मानसिकता से ही महाभारत की जड़ें शुरू होती हैं।
यह केवल शब्दों का चयन नहीं, बल्कि उनकी सोच का प्रतिबिंब है। यह बताता है कि वे पांडवों को अपने नहीं मानते, बल्कि प्रतिद्वंद्वी मानते हैं। इस पक्षपात ने ही धृतराष्ट्र को सही मार्ग से विचलित किया।
4. ‘किमकुर्वत’ — अनिश्चितता और चिंता:
धृतराष्ट्र पूछते हैं — “क्या कर रहे हैं?”
यह सवाल भी सामान्य नहीं है। उन्हें यह तो स्पष्ट है कि युद्ध के लिए दोनों पक्ष एकत्रित हुए हैं, पर फिर भी वे संजय से पूछते हैं — “उन्होंने क्या किया?”
इसका गूढ़ अर्थ यह है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि धर्मभूमि में आकर उनके पुत्रों का हृदय परिवर्तन हो गया हो? कहीं वे युद्ध से पीछे न हट जाएँ?
यह चिंता इसलिए भी है कि उन्हें अपने पुत्रों की नैतिकता पर विश्वास नहीं है, और कहीं न कहीं उन्हें यह भी अहसास है कि पांडव धर्म के पक्ष में हैं।
दर्शनशास्त्रीय (Philosophical) दृष्टिकोण से:
यह श्लोक केवल युद्ध की भूमिका नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण भगवद्गीता के लिए एक गहरी पृष्ठभूमि तैयार करता है। इसमें मानव मन की प्रवृत्ति, मोह, पक्षपात, और अज्ञान की झलक मिलती है।
धृतराष्ट्र के शब्दों से हमें चार प्रमुख संकेत मिलते हैं:
- संसारिक मोह: अपने पुत्रों के प्रति आसक्ति उन्हें पाण्डवों के साथ न्याय करने से रोकती है।
- धर्म की अनिश्चित समझ: वह धर्मभूमि में लड़ाई की चिंता करते हैं, लेकिन अपने पुत्रों के अधर्म को नहीं रोकते।
- नैतिक दुविधा: वह जानते हैं कि उनके पुत्र गलत हैं, लेकिन वह फिर भी उनसे विमुख नहीं हो सकते।
- दिव्य दृष्टि का आरंभ: यह संजय का प्रवेश है — जो युद्ध भूमि की प्रत्येक बात बिना वहाँ गए बता सकते हैं। यह ज्ञान का प्रतीक है, जहाँ आँखों से नहीं, आत्मा से देखा जाता है।
आध्यात्मिक अर्थ:
भगवद्गीता केवल युद्ध की कथा नहीं, जीवन की युद्धभूमि है — जहाँ अर्जुन (प्रत्येक आत्मा) और कौरव (आंतरिक दोष, अहंकार, मोह) के बीच संघर्ष होता है।
‘धर्मक्षेत्रे’ हमारा अंतरात्मा है, और ‘कुरुक्षेत्रे’ वह संसार है जिसमें हम जीवन का युद्ध लड़ते हैं — अपने कर्तव्यों, संबंधों, और सिद्धांतों के बीच।
धृतराष्ट्र का अंधापन प्रतीक है उस अज्ञान का, जो केवल अपने स्वार्थ और मोह को देखता है और धर्म के मार्ग से भटक जाता है।
निष्कर्ष:
इस पहले श्लोक में ही भगवद्गीता का मूल उद्देश्य छिपा हुआ है — यह केवल शस्त्रों का युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और शरीर, धर्म और अधर्म, मोह और विवेक, अज्ञान और ज्ञान के बीच का युद्ध है।
धृतराष्ट्र का प्रश्न केवल संजय से नहीं, हर पाठक से है —
“जब धर्मभूमि पर जीवन के युद्ध खड़े होते हैं,
तब तुम क्या करते हो?”