मूल श्लोक:
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥7॥
शब्दार्थ:
- अस्माकं — हमारे पक्ष में (कौरव पक्ष)
- तु — तो, लेकिन
- विशिष्टाः — प्रमुख, श्रेष्ठ
- ये — जो
- तान् — उन सबको
- निबोध — जानो, समझो
- द्विजोत्तम — ब्राह्मणों में श्रेष्ठ (द्रोणाचार्य के लिए संबोधन)
- नायकाः — सेनापति, प्रमुख योद्धा
- मम — मेरे
- सैन्यस्य — सेना के
- संज्ञार्थम् — पहचान हेतु, नाम से बताने के लिए
- तान् ब्रवीमि ते — मैं तुम्हें बताता हूँ
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारे पक्ष की और के उन सेना नायकों के संबंध में भी सुनिए, जो सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं। अब मैं आपके समक्ष उनका वर्णन करता हूँ।

भावार्थ:
दुर्योधन अब अपने पक्ष (कौरव सेना) के श्रेष्ठ योद्धाओं का वर्णन प्रारंभ करता है। वह गुरु द्रोण से कहता है —
“हे द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण)! अब आप हमारे पक्ष के उन विशिष्ट योद्धाओं को जानिए, जो मेरी सेना के प्रमुख नायक हैं। उन्हें पहचान दिलाने के उद्देश्य से मैं उनके नाम आपको बताता हूँ।”
विस्तृत भावार्थ:
1. दुर्योधन की रणनीति — मानसिक तैयारियाँ:
यहाँ से युद्ध भूमि में उपस्थित योद्धाओं का विस्तृत परिचय शुरू होता है, और यह क्रम अगले श्लोकों तक चलता है। इससे पहले वह पांडव पक्ष की शक्ति का वर्णन कर चुका है, अब वह अपने पक्ष की विशेषताओं की ओर ध्यान केंद्रित कर रहा है। यह मन की संतुलन साधना है — दूसरों की शक्ति देखकर जो भय उत्पन्न हुआ, उससे उबरने का उपाय है अपनी शक्ति को याद करना।
2. ‘विशिष्टाः’ — केवल बलशाली नहीं, प्रमुख रणनीतिक योद्धा:
दुर्योधन अपने पक्ष के केवल बलवान योद्धाओं की बात नहीं करता, बल्कि उन ‘विशिष्ट’ अर्थात् योग्य, प्रभावशाली और नेतृत्व करने योग्य योद्धाओं की बात करता है। यह दिखाता है कि उसके पास भी रणनीतिक गहराई है।
3. ‘द्विजोत्तम’ — द्रोणाचार्य के प्रति सम्मान:
वह द्रोणाचार्य को ‘द्विजोत्तम’ (ब्राह्मणों में श्रेष्ठ) कहकर संबोधित करता है — यह एक राजनीतिक शिष्टाचार भी है और मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने का प्रयास भी। वह द्रोण को सम्मान देते हुए उन्हें यह बताता है कि सेना के नेतृत्व में उनकी भूमिका सर्वोपरि है।
4. ‘संज्ञार्थम्’ — नाम लेना केवल परिचय नहीं, एक संदेश है:
यह शब्द दर्शाता है कि दुर्योधन नामों को केवल औपचारिकता के लिए नहीं ले रहा, बल्कि उन्हें युद्ध की पहचान के प्रतीक रूप में प्रस्तुत कर रहा है। यह एक तरह का सेना-सूचक संकेत है जिससे योद्धाओं को प्रेरणा मिले और हर सैनिक को पता चले कि उसके साथ कौन-कौन से नायक खड़े हैं।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
अपने बल को पहचानना भी एक युद्ध-कला है:
यह श्लोक सिखाता है कि अपने पक्ष की योग्यता को जानना, स्वीकार करना और उसमें विश्वास रखना — किसी भी संघर्ष में आधी जीत होती है। जब हम अपने संसाधनों, साथियों और शक्तियों को गिनते हैं, तब हम भीतर से सशक्त होते हैं।
नेतृत्व में पारदर्शिता और प्रेरणा:
दुर्योधन अपने प्रमुख योद्धाओं का परिचय खुलकर देकर यह सिद्ध करता है कि एक सेनापति की भूमिका केवल आदेश देना नहीं है — उसका कर्तव्य है कि वह अपने योद्धाओं को पहचान दे, उनका मनोबल बढ़ाए।
मनोविज्ञान और प्रभाव:
श्लोक एक कूटनीतिक संवाद भी है। दुर्योधन को यह ज्ञात है कि पांडवों की सेना में अत्यंत प्रभावशाली योद्धा हैं, लेकिन वह अपने पक्ष की श्रेष्ठता भी दर्शाना चाहता है — इसलिए वह नायकों की सूची देकर यह संकेत देता है कि हम भी कम नहीं हैं।
आध्यात्मिक अर्थ:
- ‘विशिष्टाः’ = जीवन में वे गुण जो हमें दूसरों से अलग बनाते हैं — धैर्य, विवेक, निष्ठा
- ‘नायकाः’ = हमारे भीतर के नेतृत्व गुण — जो परिस्थितियों में रास्ता दिखाते हैं
- ‘संज्ञार्थम्’ = आत्म-चिन्ह — जब हम स्वयं को पहचानते हैं, तो जीवन का युद्ध आसान होता है
- ‘ब्रवीमि ते’ = आत्मस्वीकृति — अपने सामर्थ्य को नकारना नहीं, स्वीकार करना चाहिए
निष्कर्ष:
यह श्लोक एक सेनापति (दुर्योधन) के भीतर चल रहे द्वंद्व और रणनीति दोनों का उद्घाटन करता है। वह पांडव पक्ष की ताकत को देखकर विचलित होता है, लेकिन तुरंत अपने पक्ष की विशेषताओं को याद करता है। यह हमें सिखाता है —
डर लगे तो पीछे मत हटो, अपने भीतर और अपने साथियों की शक्ति को पहचानो।
अपने भीतर के “नायकों” को पहचानो — जो संकट में तुम्हारा साथ देते हैं।
आपसे प्रश्न:
जब आप किसी बड़े निर्णय या चुनौती का सामना करते हैं,
क्या आप अपने जीवन के “नायकों” को पहचानते हैं — जैसे आपका आत्मबल, परिवार, अनुभव?
जब आप दूसरों की शक्ति देखकर डगमगाते हैं,
क्या आप अपनी “विशिष्टता” को याद कर आगे बढ़ते हैं?
