मूल श्लोक:
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥11॥
शब्दार्थ:
- अयनेषु — युद्ध के क्षेत्रों (रणभूमि के विभिन्न भागों) में
- च — और
- सर्वेषु — सभी
- यथा भागम् — अपने-अपने हिस्से के अनुसार
- अवस्थिताः — व्यवस्थित, तैनात
- भीष्ममेव — केवल भीष्म ही
- अभिरक्षन्तु — रक्षा करें, संरक्षित करें
- भवन्तः — आप सभी (योद्धा)
- सर्व एव हि — सभी निस्संदेह
अतः मैं कौरव सेना के सभी योद्धागणों से आग्रह करता हूँ कि सब अपने मोर्चे पर अडिग रहते हुए भीष्म पितामह की पूरी सुरक्षा करें।

भावार्थ:
दुर्योधन अपने सेनानायकों से कह रहा है —
“आप सभी युद्ध के विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने हिस्से के अनुसार व्यवस्थित हो जाओ, और केवल भीष्म की रक्षा करो, क्योंकि वही हमारे पूरे बल की रक्षा में समर्थ हैं।”
विस्तृत भावार्थ:
1. रणभूमि की रणनीतिक व्यवस्था:
यह श्लोक युद्ध में सेनाओं की सुव्यवस्थित तैनाती का निर्देश देता है। हर योद्धा को अपने-अपने क्षेत्र और हिस्से में खड़ा होना है ताकि सामूहिक रूप से मजबूत रक्षा बन सके।
2. भीष्म की महत्ता और नेतृत्व:
भीष्म को इस श्लोक में रक्षा का प्रमुख स्तंभ बताया गया है। दुर्योधन का विश्वास है कि भीष्म के नेतृत्व और उनकी रक्षा में ही कौरव सेना टिकेगी। यह भीष्म की वरिष्ठता, अनुभव और युद्ध कौशल की महत्ता को दर्शाता है।
3. सामूहिक प्रयास और समन्वय:
यहाँ सभी योद्धाओं को एकजुट होकर काम करने का आह्वान है — प्रत्येक को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और सामूहिक शक्ति को बढ़ाना होगा। दुर्योधन कह रहा है कि सेना का सफल संचालन तभी संभव है जब सभी अपने हिस्से का पूर्ण निष्ठा से पालन करें।
4. मनोवैज्ञानिक पहलू:
भीष्म की रक्षा करने का निर्देश यह भी दर्शाता है कि भीष्म के नेतृत्व को बनाए रखना सामरिक रणनीति के लिए अत्यंत आवश्यक है, और इस पर सैनिकों का पूर्ण भरोसा है। यह सैनिकों के मनोबल को भी ऊँचा करता है।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
नेतृत्व का केंद्र और सुरक्षा:
भीष्म को रक्षा करने का आदेश नेतृत्व की निरंतरता और सेना की स्थिरता का प्रतीक है। यह बताता है कि किसी भी संघर्ष में नेतृत्व की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण होती है।
समूह में व्यक्तियों की भूमिका:
सभी योद्धाओं को उनके हिस्से का सही ज्ञान और कर्तव्यबोध होना चाहिए, तभी सामूहिक सफलता संभव है। यह एक टीम वर्क और समन्वय की महत्ता को समझाता है।
संतुलन और समर्पण:
‘यथाभागमवस्थिताः’ शब्द यह सिखाता है कि संतुलित और उचित वितरण ही किसी भी कार्य की कुंजी है। हर कोई अपने हिस्से में निपुण हो, तो बड़ा लक्ष्य सफल होता है।
आध्यात्मिक अर्थ:
- अयनेषु सर्वेषु यथाभागम् अवस्थिताः — जीवन में जहाँ-जहाँ जिम्मेदारियाँ हों, हमें अपने हिस्से को समझ कर तत्पर रहना चाहिए।
- भीष्ममेव अभिरक्षन्तु — जीवन के मार्ग में जो हमारे लिए स्थिर और अनुभवी मार्गदर्शक हों, उनकी रक्षा और सम्मान करना चाहिए।
- सर्वे भवन्तः — सभी को मिलकर काम करना चाहिए, तभी सफलता संभव है।
निष्कर्ष:
यह श्लोक युद्ध के मैदान में संगठन, नेतृत्व, और सामूहिक प्रयास की महत्ता को उजागर करता है। यह बताता है कि व्यक्तिगत प्रयासों का समन्वय और नेतृत्व की सुरक्षा युद्ध जीतने की कुंजी है।
आपसे प्रश्न:
अपने जीवन के “रणभूमि” में क्या आप अपने हिस्से को समझ कर जिम्मेदारी निभाते हैं?
जब आपके जीवन के भीष्म जैसे मार्गदर्शक होते हैं, तो क्या आप उनकी रक्षा और सम्मान करते हैं?
क्या आप टीम वर्क की महत्ता को समझते हैं और सामूहिक प्रयासों में योगदान देते हैं?