मूल श्लोक:
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥
शब्दार्थ:
- तान् — उन सबको
- समीक्ष्य — देखकर, विचारपूर्वक निरीक्षण करके
- सः कौन्तेयः — वह कौन्तेय (कुन्ती का पुत्र, अर्थात अर्जुन)
- सर्वान् — सभी
- बन्धून् — संबंधियों को
- अवस्थितान् — युद्ध के लिए खड़े हुए
- कृपया — करुणा से
- परया — अत्यधिक, अत्यंत
- आविष्टः — आच्छादित, ग्रसित
- विषीदन् — शोकाकुल होकर, दुखी होकर
- इदम् अब्रवीत् — यह कहा
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने अपने बंधु बान्धवों को वहाँ देखा तब उसका मन अत्यधिक करुणा से भर गया और फिर गहन शोक के साथ उसने निम्न वचन कहे।

भावार्थ:
यह श्लोक गीता में उस मनोवैज्ञानिक मोड़ को दिखाता है जहाँ अर्जुन, एक वीर योद्धा होते हुए भी, युद्ध में खड़े अपने सगे-सम्बंधियों को देखकर करुणा से भर जाता है। उसकी युद्ध की इच्छा मुरझा जाती है और मन दुःख, द्वंद्व और मोह से भर जाता है। यहीं से गीता का असली संवाद शुरू होता है — जब अर्जुन आत्म-संदेह और विषाद में डूबने लगता है।
विस्तृत व्याख्या:
1. अर्जुन की दृष्टि का परिवर्तन
इससे पूर्व के श्लोकों में अर्जुन युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार था। उसका ध्यान रण-कौशल और धर्म के पालन पर था। लेकिन जब श्रीकृष्ण उसे दोनों सेनाओं के बीच लाते हैं और वह सभी को देखता है — पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, अपने भाई, चचेरे भाई, मित्र, शिष्य, पुत्र आदि — तब उसके भीतर कुछ टूटने लगता है।
2. अर्जुन की करुणा: वीरता या दुर्बलता?
“कृपया परया आविष्टः” — इसका अर्थ है कि अर्जुन पर अत्यधिक करुणा का भाव छा गया। यहाँ करुणा उसकी मानवीयता का परिचय है, लेकिन युद्ध के मैदान में यह करुणा उसकी मानसिक दृढ़ता को कमजोर कर देती है। यह वह क्षण है जब एक योद्धा अपने कर्तव्य और भावनाओं के बीच फंसा होता है।
3. शोक की आरंभिक लहर
“विषीदन्” — अर्जुन अब शोक में डूबने लगता है। यह शोक केवल परिजनों के संभावित वध का नहीं, बल्कि धर्म, कर्तव्य और नैतिकता की उलझन का है। अर्जुन का मन कहता है: “क्या मैं अपने ही लोगों का वध करूँ? क्या ऐसी विजय किसी काम की है?”
दार्शनिक दृष्टिकोण:
1. धर्मसंकट का उदय
यह श्लोक हमें एक गहरे धर्मसंकट से परिचित कराता है। अर्जुन धर्म (युद्ध में भाग लेना) और मोह (अपने सगे-संबंधियों को मारना) के बीच फँसा है। यही वह द्वंद्व है, जिसे गीता का सार कहा जाता है — जब व्यक्ति कर्म के मार्ग पर चलता है, तो भावनाएँ और मोह उसके कदम रोकते हैं।
2. मनुष्य के भीतर की युद्धभूमि
इस श्लोक में जो युद्ध बाहर चल रहा है, वह असल में अर्जुन के अंदर भी चल रहा है। यह श्लोक दिखाता है कि हम सबके भीतर एक कुरुक्षेत्र होता है — जहाँ हमें निर्णय लेने होते हैं, भले ही वे हमारे भावनात्मक स्वभाव के विरुद्ध क्यों न हों।
3. अर्जुन: एक प्रतीकात्मक पात्र
अर्जुन केवल एक योद्धा नहीं है — वह हर उस व्यक्ति का प्रतीक है जो जीवन में कठिन निर्णयों से जूझ रहा होता है। वह कर्मयोगी बनने से पहले आत्ममंथन करता है, मोह और करुणा से गुजरता है, और फिर मार्गदर्शन की खोज करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक अर्थ |
---|---|
अर्जुन (कौन्तेय) | प्रत्येक व्यक्ति जो भावनाओं और कर्तव्य में फंसा है |
बन्धु | अपने विचार, इच्छाएँ, संबंध, आदर्श |
करुणा | मानवीयता, प्रेम, संवेदनशीलता |
विषाद | आत्मसंघर्ष, मोह, धर्मसंदेह |
आध्यात्मिक सन्देश:
- यह श्लोक बताता है कि हर उच्च आत्मा, चाहे वह कितनी भी शिक्षित और पराक्रमी क्यों न हो, उसे कभी न कभी मोह और विषाद का सामना करना पड़ता है।
- श्रीकृष्ण अर्जुन की इस स्थिति को नकारते नहीं — वे इसे स्वीकार कर उसे उच्चतर ज्ञान की ओर ले जाते हैं।
- आत्मबोध की यात्रा विषाद से ही शुरू होती है — जब मनुष्य को अपने भीतर उठ रहे सवाल बेचैन करने लगते हैं।
निष्कर्ष:
श्लोक 27 गीता का वह बिंदु है जहाँ अर्जुन की चेतना एक साधारण योद्धा से एक साधक में परिवर्तित होती है। यह श्लोक बताता है कि गहराई से सोचने वाला मनुष्य सिर्फ बाहरी कार्यों में नहीं उलझता, वह अपने कर्मों के परिणाम, नैतिकता और संबंधों की भी चिंता करता है।
अर्जुन का यह क्षण दुर्बलता का नहीं, बल्कि आत्म-प्रश्नों का है — और यही आत्मप्रश्न आगे चलकर गीता के महान उत्तरों का द्वार खोलते हैं।
आपसे आत्ममंथन हेतु प्रश्न:
क्या आपने कभी ऐसा निर्णय लिया है जहाँ भावनाएँ और कर्तव्य टकराए हों?
जब आप अपने ही लोगों के विरुद्ध खड़े होते हैं, तो निर्णय लेना कितना कठिन होता है?
अर्जुन की करुणा को आप कमजोरी मानते हैं या उच्च संवेदनशीलता?
क्या आप भी किसी “कुरुक्षेत्र” से गुजर रहे हैं जहाँ आपकी अंतरात्मा शंकाओं से घिरी हुई है?