Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 1, Sloke (29-30-31)

English

मूल श्लोक

श्लोक 29:
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते॥

श्लोक 30:
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव॥

श्लोक 31:
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥

शब्दार्थ

  • वेपथुः — शरीर का कांपना
  • शरीरे मे — मेरे शरीर में
  • रोमहर्षः — रोंगटे खड़े होना
  • जायते — उत्पन्न हो रहा है
  • गाण्डीवम् — अर्जुन का धनुष
  • स्रंसते — गिर रहा है, फिसल रहा है
  • हस्तात् — हाथ से
  • त्वक् — त्वचा
  • परिदह्यते — जल रही है
  • न शक्नोमि — मैं सक्षम नहीं हूँ
  • अवस्थातुम् — स्थिर रहने के लिए
  • भ्रमति — चक्कर खा रहा है
  • मे मनः — मेरा मन
  • निमित्तानि — लक्षण, संकेत
  • विपरीतानि — विपरीत, अशुभ
  • केशव — हे केशव (कृष्ण)
  • न श्रेयः अनुपश्यामि — मुझे कल्याणकारी मार्ग नहीं दिखता
  • हत्वा — मारकर
  • स्वजनम् — अपने ही लोगों को
  • आहवे — युद्ध में
  • न काङ्क्षे — मैं इच्छुक नहीं हूँ
  • विजयम् — विजय
  • न च राज्यं — न राज्य की
  • सुखानि च — और न ही सुखों की

मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे शरीर के रोएं खड़े हो रहे हैं, मेरा धनुष ‘गाण्डीव’ मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी पूरी त्वचा में जलन हो रही है। मेरा मन उलझ रहा है और मुझे घबराहट हो रही है। अब मैं यहाँ और अधिक खड़ा रहने में समर्थ नहीं हूँ। केशी राक्षस का वध करने वाले हे केशव! मुझे केवल अमंगल के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। युद्ध में अपने वंश के बंधु बान्धवों का वध करने में मुझे कोई अच्छाई नही दिखाई देती है और उन्हें मारकर मैं कैसे सुख पा सकता हूँ?

भावार्थ

ये श्लोक अर्जुन के मानसिक और शारीरिक संकट की चरम अवस्था को प्रकट करते हैं। यहाँ अर्जुन का वीर योद्धा व्यक्तित्व क्षीण होने लगता है और वह अपनी भावनाओं में बहकर युद्ध से विमुख हो जाता है। उसका मन भ्रमित हो गया है, उसके विचार उलझ चुके हैं। वह केवल एक योद्धा नहीं, एक भावुक इंसान बनकर सामने आता है।

विस्तृत व्याख्या

1. अर्जुन का शारीरिक असंतुलन:

  • शरीर कांप रहा है — यह मानसिक भय और आघात का परिणाम है।
  • रोंगटे खड़े होना — चिंता, भय और दुविधा का गहन संकेत।
  • गाण्डीव गिरना — आत्मबल का पतन, योद्धा-भाव का क्षरण।
  • त्वचा जलना — गहरी बेचैनी और मानसिक संकट की प्रत्यक्ष अनुभूति।

2. मानसिक द्वंद्व और भ्रम:

“भ्रमतीव च मे मनः” — अर्जुन कहता है कि उसका मन चक्कर खा रहा है।
यह स्पष्ट करता है कि उसका निर्णय लेने की शक्ति खत्म हो गई है। वह स्पष्टता खो चुका है।

3. विपरीत लक्षण देखना:

अर्जुन कहता है — “निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि।”
अर्थात वह केवल अशुभ संकेत देखता है — जैसे कि यह युद्ध कोई विनाश ही लाएगा।
यह उसकी आत्मा की चेतावनी भी हो सकती है या फिर मोह की अभिव्यक्ति।

4. धर्म और मोह का संघर्ष:

अर्जुन कहता है — “हत्वा स्वजनम्” यानी स्वजनों को मारकर वह कोई भी “श्रेय” (कल्याण) नहीं देखता।
यह गीता का सबसे संवेदनशील क्षण है। अर्जुन की धर्मबुद्धि और भावनात्मक बुद्धि में द्वंद्व चल रहा है।

प्रतीकात्मक दृष्टिकोण

तत्वप्रतीक अर्थ
गाण्डीव का गिरनाआत्मबल और कर्तव्य का पतन
रोमहर्षआत्मसंकट की तीव्रता
त्वचा जलनाआंतरिक द्वंद्व की व्यथा
विपरीत लक्षणचेतना की उलझन और मोह का प्रभाव
स्वजनमोह, स्मृति और संबंध का प्रतीक

मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

अर्जुन की स्थिति एक Post-Traumatic Stress Precursor की तरह है। युद्ध प्रारंभ होने से पहले ही उसे:

  • Panic Attack के लक्षण
  • Extreme anxiety
  • Physical instability
  • Emotional breakdown

दिखने लगते हैं। यह दिखाता है कि गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव मन का गहन विज्ञान भी है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

1. कर्तव्य बनाम मोह:

युद्ध धर्म के लिए है, लेकिन अर्जुन रिश्तों के मोह में उलझा है।
धर्म कहता है — अधर्म का नाश करो
मोह कहता है — अपने मत मारो
इस द्वंद्व में अर्जुन का विवेक हिल गया है।

2. वास्तविक श्रेय क्या है?

अर्जुन पूछता है: “क्या अपने ही प्रियजनों को मारकर कोई ‘शुभ’ संभव है?”
यह सवाल हर उस मनुष्य के भीतर उठता है, जो कर्तव्य और करुणा के बीच फंसा होता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से संदेश

  • शरीर की अस्थिरता = आत्मा से दूर होना
  • मन का भ्रम = अधूरी आत्म-चेतना
  • श्रेय न देख पाना = विवेक का क्षय

इसका समाधान क्या है? — श्रीकृष्ण के उपदेश।
गीता इसी क्षण से ज्ञानयोग की ओर बढ़ती है।

नैतिक शिक्षा

  • कोई भी मनुष्य चाहे कितना भी सक्षम हो, भावनात्मक संघर्ष उसे तोड़ सकता है।
  • अपने धर्म और कर्तव्य को समझना केवल बुद्धि नहीं, आत्मा की जागृति से संभव है।
  • सच्चा योद्धा वह है जो युद्ध जीतने से पहले अपने अंदर के भ्रम को हराए

निष्कर्ष

अर्जुन की यह स्थिति मानवता की एक महान अभिव्यक्ति है।
यह केवल युद्ध छोड़ने की दया नहीं — यह एक गंभीर आत्म-संशय है,
जिससे होकर हर साधक, हर निर्णयकर्ता, हर धर्म-निष्ठ व्यक्ति गुजरता है।

यह वही क्षण है जहाँ से भगवद गीता की असली यात्रा शुरू होती है —
बाह्य युद्ध से आंतरिक आत्मजागरण की ओर।

आत्ममंथन के प्रश्न (Self-Reflection Questions):

क्या कभी आपका मन भी किसी निर्णय के समय भ्रमित हुआ है?
आपने कभी अपने कर्तव्य को किसी संबंध या भावना के कारण टाल दिया?
जब आपका ‘गाण्डीव’ गिरा, तब क्या आपने भीतर श्रीकृष्ण की आवाज़ सुनी?
आप विपरीत निमित्तों (अशुभ संकेतों) को कैसे समझते हैं — डर, चेतावनी, या मोह?

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