Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 1, Sloke 42

English

मूल श्लोक : 42

सङ्करो नरकायैव कुलजानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥42॥

शब्दार्थ:

  • सङ्करः — वर्णसङ्कर संतान (वर्णों का मिश्रण, अनुचित वंश)
  • नरकाय एव — निश्चित रूप से नरक का कारण होता है
  • कुलजानां — कुल में उत्पन्न व्यक्तियों के लिए
  • कुलस्य च — तथा पूरे कुल के लिए
  • पतन्ति — पतित हो जाते हैं, गिर जाते हैं
  • पितरः — पितृगण, पूर्वज
  • हि — निश्चय ही
  • एषां — उन लोगों के
  • लुप्त — लुप्त, नष्ट हो जाना
  • पिण्डोदकक्रियाः — पिण्ड (श्राद्ध) और उदक (जल तर्पण) की क्रियाएं

अवांछित सन्तानों की वृद्धि के परिणामस्वरूप निश्चय ही पारिवारिक परम्परा का विनाश करने वालों का जीवन नारकीय बन जाता है। जल तथा पिण्डदान की क्रियाओं से वंचित हो जाने के कारण ऐसे पतित कुलों के पितरों का भी पतन हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में अर्जुन पारिवारिक, धार्मिक, और आध्यात्मिक दायित्वों के विच्युत होने के दुष्परिणामों को प्रस्तुत करता है।
उसकी चिंता युद्ध के कारण केवल वर्तमान समाज की नहीं, बल्कि भविष्य की संतानों और पूर्वजों की आत्माओं तक पहुँचती है।

1. ‘सङ्करः नरकायैव’ — वर्णसङ्कर से सामाजिक अधःपतन:

  • जब वर्णसंकर संतानें जन्म लेती हैं, तब सामाजिक उत्तरदायित्व, धर्म, संस्कार — सब नष्ट होने लगते हैं।
  • अर्जुन कहता है कि इसका परिणाम नरक समान होता है, क्योंकि ऐसी संतानों के पास न तो धर्म होता है, न कर्तव्य की भावना।

यहाँ ‘नरक’ केवल परलोक का चित्र नहीं, एक सामाजिक और आत्मिक पतन की स्थिति है जहाँ संतुलन और विवेक नष्ट हो जाते हैं।

2. ‘पतन्ति पितरः’ — पूर्वजों की आत्मा का पतन:

  • हिन्दू परंपरा में ‘पिण्ड’ और ‘उदक’ क्रियाएं — श्राद्ध और तर्पण — अत्यंत आवश्यक मानी गई हैं।
  • यदि अगली पीढ़ी धर्म से विमुख हो जाए तो वे पितरों को तर्पण नहीं देते, जिससे पितर त्रस्त और पतित हो जाते हैं।

इस श्लोक में पूर्वजों की मुक्ति और संतति के धर्म के बीच की सीधी कड़ी को रेखांकित किया गया है।

3. ‘लुप्तपिण्डोदकक्रियाः’ — जब कर्मकांड ही नष्ट हो जाएं:

  • यहाँ कर्मकांड का भाव केवल रीति-रिवाज़ नहीं है, बल्कि धर्मपरायणता, उत्तरदायित्व और पवित्र परंपरा की निरंतरता है।
  • जब नई पीढ़ी इन कार्यों को नहीं करती, तो संपूर्ण कुल पर आध्यात्मिक संकट छा जाता है।

दर्शनशास्त्रीय एवं आध्यात्मिक व्याख्या:

पूर्वजों के प्रति उत्तरदायित्व:

  • गीता यहाँ केवल सांसारिक जीवन की नहीं, तीन पीढ़ियों — अतीत (पितर), वर्तमान (स्वयं), और भविष्य (संतति) की समग्र दृष्टि रखती है।
  • यह उत्तरदायित्व की त्रैतीय धारणा है — हम अपने कर्मों से पूर्वजों को भी प्रभावित करते हैं।

नरक का भाव — आत्मिक पीड़ा:

  • नरक को केवल अग्नि और यातना न मानें — यह आत्मा की विवेकहीनता, धर्मविच्छेद और संतुलन खोने की अवस्था है।
  • जब धर्म नष्ट होता है, तब व्यक्ति की आत्मा दिशाहीन होकर कष्ट में रहती है — वही नरक है।

वर्णसङ्कर = चेतना का मिश्रण, धर्म का भ्रम:

  • वर्णसंकर का वास्तविक भय कर्तव्य की स्पष्टता का नष्ट होना है।
  • जब लोगों को यह नहीं पता कि उन्हें क्या करना है, धर्म क्या है, समाज में उनका स्थान क्या है — वही सामाजिक नरक है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्त्वप्रतीक
सङ्करःवैचारिक, नैतिक और पारिवारिक भ्रम
नरकआत्मिक पीड़ा, सामाजिक विनाश
पितरपरंपरा, पूर्वजों का आशीर्वाद
पिण्डोदक क्रियाएँधर्म-कर्तव्य, पीढ़ीगत उत्तरदायित्व

नैतिक अंतर्दृष्टियाँ:

  1. परंपराएं केवल प्रथा नहीं, समाज की आत्मा हैं।
    उनका नाश व्यक्ति और समाज दोनों को नीचे ले जाता है।
  2. धर्म और उत्तरदायित्व की उपेक्षा केवल स्वयं को नहीं,
    हमारे पूर्वजों और संतति — दोनों को कष्ट देती है।
  3. संस्कृति की रक्षा केवल सरकारों से नहीं होती —
    वह प्रत्येक व्यक्ति के कर्म से होती है।

आपसे आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या आज हम अपने पूर्वजों के उत्तरदायित्वों को निभा रहे हैं?
क्या हमने तर्पण, स्मरण और आभार की परंपराओं को जीवित रखा है?
आज की संतति को धर्म और संस्कृति से जोड़ने के लिए हम क्या कर रहे हैं?
क्या ‘नरक’ आज हमारे जीवन में भय, भ्रम और तनाव के रूप में उपस्थित नहीं हो चुका है?
क्या आधुनिक ‘सङ्कर’ — यानी कर्तव्यविमुख जीवन, स्वेच्छाचारिता, और मूल्यविहीनता — समाज के पतन का कारण नहीं बन रहे?

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