Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 1, Sloke 45

English

मूल श्लोक : 45

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥

शब्दार्थ:

  • अहो बत — हाय! कैसा आश्चर्यजनक और दुःखद
  • महत् पापम् — बहुत बड़ा पाप
  • कर्तुम् — करने के लिए
  • व्यवसिताः वयम् — हम संकल्पित या तैयार हुए हैं
  • यत् — जो
  • राज्यसुखलोभेन — राज्य और सुख के लोभ से, ऐश्वर्य की लालसा से
  • हन्तुम् — मारने के लिए
  • स्वजनम् — अपने ही लोगों को, सगे-संबंधियों को
  • उद्यताः — तैयार हो गए हैं

हाय! हम कैसे महान पाप के लिए तैयार हो गए हैं — केवल राज्य और सुख की लालसा में अपने ही स्वजनों को मारने को उद्यत हो गए हैं!

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में अर्जुन के मन में उठ रही करुणा, पश्चाताप और आत्मग्लानि अपने चरम पर पहुँचती है। वे युद्ध से पहले आत्मचिंतन करते हुए यह स्वीकार करते हैं कि राज्य और सुख की कामना ने उन्हें अत्यंत अधार्मिक मार्ग पर खड़ा कर दिया है।

1. “अहो बत” — पश्चाताप और विस्मय का आर्तनाद:

  • यह शब्द युगल गहरे आत्म-पीड़ा और आश्चर्य को दर्शाता है।
  • अर्जुन न केवल शोक व्यक्त कर रहे हैं, बल्कि इस बात से स्तब्ध हैं कि वे स्वयं इस स्थिति में आ पहुँचे हैं।

2. “महत्पापं” — पाप की पराकाष्ठा:

  • यहाँ ‘पाप’ केवल हिंसा नहीं है, यह अपने कर्तव्य और संबंधों से विमुख होना है।
  • अपने स्वजनों की हत्या करना न केवल व्यक्तिगत अपराध है, बल्कि समाज और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन भी है।

3. “राज्यसुखलोभेन” — लोभ और सत्ता की काली छाया:

  • अर्जुन को अब यह स्पष्ट दिखने लगा है कि यह युद्ध केवल धर्म की रक्षा नहीं, बल्कि सत्ता की कामना से भी प्रेरित है।
  • सुख और राज्य की चाह मनुष्य को अपने नैतिक दायरे से बाहर निकाल देती है।

4. “स्वजनं हन्तुं उद्यताः” — आत्मघात की मनोवृत्ति:

  • स्वजन की हत्या = आत्मविनाश।
  • यहाँ अर्जुन यह महसूस करते हैं कि वे जिस युद्ध के लिए तैयार हुए हैं, वह अंततः आत्मा की हत्या के समान है।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

कर्तव्य और करुणा के द्वंद्व:

  • अर्जुन धर्मयुद्ध को कर्तव्य मानते थे, परंतु करुणा और रिश्तों की भावना उन्हें रोक रही है।
  • यह श्लोक उस मानसिक संग्राम को दर्शाता है जहाँ विवेक और भावना टकरा रहे हैं।

पाप की पहचान — चेतना की जागृति:

  • अर्जुन का यह श्लोक दिखाता है कि वे केवल योद्धा नहीं, एक संवेदनशील आत्मा हैं।
  • आत्मनिरीक्षण और विवेक ही सच्चे धर्म का आरंभ है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्त्वप्रतीक
अहो बतआत्मग्लानि और नैतिक जागरण
महत्पापम्गहन अधर्म, जो केवल बाह्य नहीं, आंतरिक भी है
राज्यसुखलोभेनभौतिक लोभ, अहंकार, सत्ता की चाह
स्वजनम् हन्तुंआत्मीयता, संस्कृति, मूल्य और आत्मा का हनन

नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:

  • सत्ता और लोभ यदि विवेक पर हावी हो जाए, तो मनुष्य अपने ही संबंधों को नष्ट कर सकता है।
  • आत्मनिरीक्षण ही पाप से बचने का प्रथम चरण है — अर्जुन का यह विचार उन्हें पुनः धर्म के मार्ग पर लाने में सहायक बनता है।
  • संबंध केवल रक्त के नहीं होते, वे आत्मा की गहराई से जुड़े होते हैं — और उनका वध आत्मघात है।

आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:

क्या हम भी आज किसी ‘राज्यसुखलोभ’ — यानी भौतिक सुख के कारण अपने संबंधों या मूल्यों की बलि दे रहे हैं?
क्या हमारी महत्वाकांक्षा कभी हमें अपने ही लोगों के विरुद्ध खड़ा कर देती है?
क्या हम स्वयं को कभी ‘महत्पापं’ के लिए तैयार पाते हैं, और यदि हाँ — तो क्या हम अर्जुन की तरह आत्मनिरीक्षण करते हैं
क्या आत्मग्लानि और करुणा को हम कमजोरी समझते हैं, या वह वास्तव में हमारी आध्यात्मिक शक्ति है?

    निष्कर्ष:

    यह श्लोक केवल युद्ध की पूर्वपीठिका नहीं है, यह एक महान योद्धा के अंतरद्वंद्व की अभिव्यक्ति है — जहाँ मानवता और धर्म दोनों की परीक्षा हो रही है।
    अर्जुन की पीड़ा हम सभी के भीतर मौजूद उस ‘धर्मात्मा’ की आवाज़ है जो लोभ, क्रोध, और मोह से ग्रसित होते हुए भी सही मार्ग की ओर लौटना चाहता है।

    यह श्लोक सिखाता है कि —
    “सच्चा धर्म वहाँ प्रारंभ होता है जहाँ आत्मा अपने कर्मों को प्रश्नों की कसौटी पर कसती है।”

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