मूल श्लोक : 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
शब्दार्थ:
- क्लैब्यम् — कायरता, नपुंसकता
- मा स्म गमः — मत जाओ, मत अपनाओ
- पार्थ — हे पार्थ! (कुन्तीपुत्र अर्जुन)
- न एतत् — यह (भाव)
- त्वयि — तुममें, तुम्हारे लिए
- उपपद्यते — शोभा नहीं देता, योग्य नहीं है
- क्षुद्रं — तुच्छ, नीच
- हृदय-दौर्बल्यं — हृदय की दुर्बलता, मानसिक कमजोरी
- त्यक्त्वा — त्याग कर
- उत्तिष्ठ — उठो, खड़े हो जाओ
- परन्तप — शत्रुओं को संताप देने वाले (अर्जुन का वीरतापूर्ण विशेषण)
हे पार्थ! अपने भीतर इस प्रकार की नपुंसकता का भाव लाना तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विजेता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग करो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की मानसिक स्थिति को झकझोरने का अगला कदम है। यहाँ वे अत्यंत तीखे और प्रेरक शब्दों में अर्जुन की कायरता पर प्रहार करते हैं।
1. “क्लैब्यं मा स्म गमः” — कायरता को अपनाना अधर्म है:
- “क्लैब्य” शब्द यहाँ नपुंसकता, कमजोरी और कर्तव्य से पलायन का प्रतीक है।
- श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं: कायरता धर्म के विपरीत है।
2. “न एतत्त्वय्युपपद्यते” — यह तेरे योग्य नहीं है:
- अर्जुन, जो कि महारथी, धर्मज्ञ, वीर और कर्तव्यपरायण है — उसके लिए यह आत्मविमुखता शोभनीय नहीं है।
- यह श्लोक एक प्रकार से अर्जुन की आत्मा को उसके मूल स्वरूप की याद दिलाता है।
3. “क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं” — तुच्छ मानसिक दुर्बलता:
- श्रीकृष्ण इसे केवल कमजोरी नहीं, बल्कि “क्षुद्र”, यानी नीच, पतनकारी बताते हैं।
- यह दिखाता है कि कर्तव्य से मुंह मोड़ना केवल दुर्बलता नहीं, आत्मघात है।
4. “त्यक्त्वा उत्तिष्ठ” — यह समय उठ खड़े होने का है:
- मोह और शोक को त्याग दो।
- उठो, अपने आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाओ, क्योंकि युद्ध तो बाहर है, लेकिन विजय भीतर से शुरू होती है।
5. “परन्तप” — अर्जुन की वीरता की पुनः स्मृति:
- श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके वास्तविक स्वरूप की याद दिलाते हैं।
- “परन्तप” = शत्रुओं को संताप देने वाला।
- यह संबोधन संकोच से वीरता की ओर खींचने वाला मन्त्र है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
कर्तव्य के क्षण में कायरता = आत्मा का पतन:
- गीता स्पष्ट करती है: कर्तव्य छोड़ना धार्मिक पतन की शुरुआत है।
- यदि अर्जुन जैसे धर्मयोद्धा मोह और शोक में डूब जाए, तो धर्म की रक्षा कौन करेगा?
उद्धार स्वयं से ही होता है:
- श्रीकृष्ण सहारा नहीं बनते, बल्कि स्वतः अर्जुन को चेताते हैं —
“उठो! स्वयं को संभालो! यह तुम्हारा धर्म है।”
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
क्लैब्यं | कर्तव्य से पलायन, आत्मबल की क्षति |
हृदयदौर्बल्यं | मोह, शोक, भ्रम और आत्म-संदेह |
उत्तिष्ठ | आत्म-जागरण, पुनः धर्म में स्थित होना |
परन्तप | आत्मबल की पुनः स्मृति, जीवन में पुनः उद्देश्य की चेतना |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- जब कोई धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपने कर्तव्य से हटता है, तो केवल स्वयं नहीं, समाज की दिशा भी डगमगा जाती है।
- आत्मबल की सबसे बड़ी परीक्षा संकट की घड़ी में होती है — और वहीं उसका जागरण भी संभव होता है।
- धर्म केवल शास्त्र पढ़ने में नहीं — कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में है।
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या मैंने भी कभी अपने ‘हृदयदौर्बल्य’ को धर्म के नाम पर उचित ठहराया है?
क्या मैं अपने जीवन के ‘धर्मयुद्ध’ से भाग रहा हूँ?
क्या मेरी निष्क्रियता समाज या परिवार के लिए हानिकारक बन रही है?
क्या मैं भीतर से ‘परन्तप’ हूँ — या केवल बाहरी मुखौटे पहनकर जीवन जी रहा हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक अर्जुन के आत्मबल का पुनर्निर्माण है।
यह जीवन का मूल सन्देश है — उठो, जागो, कायरता को त्यागो और धर्म में स्थित हो जाओ।
भगवद्गीता में यह श्लोक केवल युद्धभूमि की पुकार नहीं,
बल्कि हर मनुष्य के भीतर चल रहे संघर्ष का आह्वान है।
कर्तव्य से विमुखता = आत्मा का पराजय।
धर्म में स्थित होना = आत्मा का विजय।