Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 4

English

मूल श्लोक : 4

अर्जुन उवाच।
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥

शब्दार्थ:

  • अर्जुन उवाच — अर्जुन ने कहा
  • कथम् — कैसे?
  • भीष्मम् — पितामह भीष्म को
  • अहम् — मैं
  • सङ्ख्ये — युद्ध में, संग्राम में
  • द्रोणम् — आचार्य द्रोण को
  • — और
  • मधुसूदन — हे मधुसूदन! (मधु नामक असुर का वध करने वाले श्रीकृष्ण)
  • इषुभिः — बाणों से
  • प्रतियोत्स्यामि — युद्ध करूँगा, मुकाबला करूँगा
  • पूजार्हौ — पूजनीय हैं, पूजा के योग्य हैं
  • अरिसूदन — हे शत्रुनाशक!

अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! हे शत्रुओं के दमनकर्ता! मैं युद्धभूमि में कैसे भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे महापुरुषों पर बाण चला सकता हूँ जो मेरे लिए परम पूजनीय है।

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक अर्जुन के अंतर्द्वंद्व और नैतिक दुविधा को दर्शाता है। युद्ध केवल शत्रु-वध नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक बंधनों की कसौटी भी है।

1. “कथं… इषुभिः प्रतियोत्स्यामि” — धर्म और स्नेह का द्वंद्व:

  • अर्जुन युद्ध को केवल रणभूमि नहीं, एक नैतिक प्रयोगशाला मान रहे हैं।
  • उनके गुरु और पितामह युद्ध के शत्रुपक्ष में हैं, लेकिन हृदय में उनके पूज्य हैं
  • इसलिए वे सोचते हैं — “मैं कैसे युद्ध करूँ इन पूजनीयों के विरुद्ध?”

2. “भीष्मम्… द्रोणम्” — संबंधों की मर्यादा बनाम धर्म की रक्षा:

  • भीष्म अर्जुन के पितातुल्य हैं और द्रोण गुरुतुल्य
  • अर्जुन के लिए यह युद्ध केवल बाहरी नहीं, भीतर का संघर्ष है —
    कर्तव्य बनाम करुणा, धर्म बनाम स्नेह।

3. “पूजार्हौ” — बाह्य सम्मान और आंतरिक विरोधाभास:

  • अर्जुन उन्हें पूजन के योग्य मानते हैं, अतः उनके विरुद्ध युद्ध करना संस्कृति-विरोधी कृत्य लगता है।
  • यह श्लोक अर्जुन की गंभीर धर्म-संकोच की स्थिति को दर्शाता है।

4. “मधुसूदन” और “अरिसूदन” — संबोधन का अर्थपूर्ण प्रयोग:

  • “मधुसूदन” और “अरिसूदन” कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण को विनम्र रूप से स्मरण करते हैं कि:
    • आपने तो असुरों का वध किया,
    • परन्तु मैं तो अपने पूज्यजनों से युद्ध करने जा रहा हूँ।
  • यह अप्रत्यक्ष याचना है कि श्रीकृष्ण कोई और मार्ग सुझाएँ

दार्शनिक दृष्टिकोण:

कर्म और संबंधों का टकराव:

  • अर्जुन की यह दुविधा हर युग में प्रासंगिक है — जब कर्तव्य के मार्ग में अपने ही प्रियजन खड़े हों।
  • धर्म केवल युद्ध करना नहीं — उचित और अनुचित का विवेकपूर्ण चुनाव भी है।

पूजनीयों से युद्ध — क्या यह अधर्म है?

  • गीता इस प्रश्न को उठाती है —
    यदि पूजनीयजन अधर्म के पक्ष में खड़े हों, तो क्या वे अब भी पूज्य हैं?
  • यह श्लोक इसी गहन प्रश्न की प्रस्तावना है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्त्वप्रतीक
भीष्म, द्रोणपरंपरा, अनुशासन, संस्कार
पूजार्हअतीत की आदर्श छवि, जिनसे जुड़ी श्रद्धा
इषुभिः युद्धकर्म, निर्णायक एक्शन
मधुसूदन, अरिसूदनश्रीकृष्ण का धर्मसंस्थापक स्वरूप
प्रतियोत्स्यामिमन की चंचलता और निर्णय की असमर्थता

नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:

  • कर्तव्य का मार्ग कभी-कभी अपनों से टकराव की माँग करता है।
  • अर्जुन की यह अवस्था आज भी हर उस व्यक्ति की स्थिति है जो सत्य के लिए अपनों से टकराने को विवश होता है।
  • जो पूज्य हैं, वे यदि अधर्म के पथ पर चलें, तो उन्हें केवल श्रद्धा से नहीं — धर्म से तौलना चाहिए

आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:

क्या मैं भी अपने जीवन के निर्णयों में “पूजनीयता” और “कर्तव्य” के बीच फँसता हूँ?
क्या मेरे “संस्कार” मुझे धर्म से रोक रहे हैं?
क्या मैं भी किसी गलत परिस्थिति को केवल इसलिए स्वीकार कर रहा हूँ क्योंकि उससे मेरा भावनात्मक संबंध है?
क्या मैं अपने कर्तव्य के निर्णय में श्रीकृष्ण जैसे विवेक का आह्वान कर रहा हूँ?

    निष्कर्ष:

    यह श्लोक अर्जुन की आत्मीयता और धर्म के बीच की दुविधा को उजागर करता है।
    यह हमें सिखाता है कि:

    सच्चा धर्म वह है जो न्याय और सत्य के साथ हो — भले ही वह अपनों के विरुद्ध क्यों न हो।

    श्रीकृष्ण इस दुविधा को गहराई से सुनते हैं, लेकिन वे अर्जुन को सत्यधर्म की ओर, कर्मयोग की ओर ले जाने वाले मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं।

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *