मूल श्लोक : 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥
शब्दार्थ:
- गुरून् — गुरुजन (भीष्म, द्रोण आदि)
- अहत्वा — न मारकर
- हि — निश्चय ही
- महानुभावान् — महान आत्मा वाले, उदात्त चरित्र वाले
- श्रेयः — श्रेष्ठ, अधिक कल्याणकारी
- भोक्तुम् — भोग करना
- भैक्ष्यम् — भिक्षा, याचना द्वारा प्राप्त अन्न
- अपि — भी
- इह — इस संसार में
- लोके — लोक में, संसार में
- हत्वा — मारकर
- अर्थकामान् — भोग व लाभ के इच्छुक
- तु — परंतु
- गुरून् — गुरुजनों को
- इह एव — यहीं पर, इसी युद्ध में
- भुंजीय — भोगना चाहिए
- भोगान् — भोगों को, सुख-साधनों को
- रुधिर-प्रदिग्धान् — रक्त से लथपथ (लज्जाजनक)
ऐसे आदरणीय महापुरुष जो मेरे गुरुजन हैं, को मारकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा तो भीख मांगकर इस संसार में जीवन निर्वाह करना अधिक श्रेयस्कर है। यदि हम उन्हें मारते हैं तो उसके परिणामस्वरूप हम जिस सम्पत्ति और सुखों का भोग करेंगे वे रक्तरंजित होंगे।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के धार्मिक, नैतिक और भावनात्मक संघर्ष की चरम स्थिति को दर्शाता है। युद्ध से पहले की यह मनःस्थिति उन्हें धर्मसंकट में डाल रही है।
1. “गुरूनहत्वा… श्रेयो भैक्ष्यम्” — अहिंसा और त्याग की मानसिकता:
- अर्जुन को लगता है कि यदि उन्हें अपने गुरुजनों की हत्या करनी पड़े, तो ऐसे जीवन की अपेक्षा भिक्षा से जीना बेहतर है।
- भिक्षा का अर्थ यहाँ साधारण जीवन, त्याग, और संघर्षपूर्ण अस्तित्व है, लेकिन यह मूल्यवान है क्योंकि वह पापरहित है।
2. “महानुभावान्” — संबंधों की ऊँचाई:
- अर्जुन भीष्म और द्रोण को केवल योद्धा नहीं, आत्मिक रूप से महान, पूजनीय व्यक्तित्व मानते हैं।
- उनका यह भाव दर्शाता है कि वे केवल जीत के लिए नहीं, धर्म के लिए युद्ध करना चाहते हैं — यदि युद्ध आवश्यक हो।
3. “हत्वार्थकामान्… भुंजीय भोगान्” — पापयुक्त विजय का तिरस्कार:
- यदि अर्जुन युद्ध करते हैं, तो उन्हें रक्तरंजित विजय मिलेगी —
जो भोग वे पाएंगे वे उन गुरुओं के बलिदान से सने हुए होंगे। - ऐसे भोग अर्जुन को पाप और पश्चाताप का कारण प्रतीत होते हैं।
4. “रुधिर-प्रदिग्धान्” — विजयोन्माद की नैतिक विफलता:
- अर्जुन के अनुसार वह भोग जो अपने ही पूजनीयों के खून से सना हो, वह वास्तव में भोग नहीं, शोक है।
- यह पंक्ति युद्ध की नैतिक जटिलता को अत्यंत सशक्त रूप से दर्शाती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
अहिंसा बनाम धर्म का कर्तव्य:
- अर्जुन का यह विचार सांख्यिक सत्य का आभास कराता है —
कि हिंसा से मुक्त, सरल जीवन भले ही कठिन हो, पर वह पापरहित होता है। - लेकिन भगवद्गीता केवल भावनात्मक त्याग की गाथा नहीं, बल्कि कर्तव्य के साक्षात्कार की शिक्षा है।
भिक्षा और भोग — कौन श्रेयस्कर?
- अर्जुन भोग और लाभ को पापयुक्त मानते हैं, यदि वे अधार्मिक साधनों से प्राप्त हों।
- यह शिक्षा आज के समाज के लिए भी प्रासंगिक है —
“प्राप्ति का साधन जितना पवित्र हो, वही सच्ची संपत्ति है।”
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
गुरु, महानुभाव | जीवन के आदर्श, मार्गदर्शक शक्तियाँ |
भिक्षा | सादा, नैतिक, संयमित जीवन |
अर्थकामान् गुरुओं की हत्या | स्वार्थ की विजय पर आदर्शों का पराभव |
रुधिरप्रदिग्ध भोग | अपराधबोध से सने हुए सुख, जो वास्तव में दुखद हैं |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- अर्जुन के भाव हमारे समाज में अत्यधिक प्रासंगिक हैं:
- क्या हम लाभ के लिए मूल्य और आदर्शों की हत्या तो नहीं कर रहे?
- क्या हम भी उन “भोगों” में डूबे हैं जो किसी के त्याग, पीड़ा या धोखे से अर्जित हुए?
- अर्जुन का विचार यह भी सिखाता है कि: “सत्य और आदर्श यदि खो जाएँ, तो सफलता भी तुच्छ बन जाती है।”
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या मैंने कभी किसी “गुरु” या आदर्श के विरुद्ध जाकर सफलता प्राप्त की है?
क्या वह सफलता मेरे लिए सुखद थी या अपराधबोध का कारण बनी?
क्या मैं भी किसी “रुधिर-प्रदिग्ध भोग” को भोग रहा हूँ — यानी ऐसे साधनों से प्राप्त सफलता, जो मेरे अंतःकरण को पीड़ित करती हो?
क्या भिक्षा जैसा त्यागमय जीवन मेरे लिए नैतिक विकल्प हो सकता है, जब अन्य मार्ग पापमय हों?
निष्कर्ष:
यह श्लोक केवल अर्जुन की मानसिक पीड़ा नहीं, बल्कि सत्कर्म, संबंध और धर्म की गहराई का चिंतन है।
यह सिखाता है:
“यदि सफलता पापरहित न हो, तो वह पराजय से भी अधिक घातक है।”
यहाँ अर्जुन युद्ध त्यागने का मन बना रहे हैं, परंतु श्रीकृष्ण उनका ध्यान भावनात्मकता से हटाकर धर्म के गूढ़ तत्वों पर केंद्रित करने वाले हैं।