मूल श्लोक – 14
श्रीभगवानुवाच —
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
शब्दार्थ:
- मात्रास्पर्शाः — इन्द्रियों के विषयों से संपर्क
- तु — किंतु
- कौन्तेय — हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
- शीतोष्णसुखदुःखदाः — सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख देने वाले
- आगम-अपायिनः — आने-जाने वाले, क्षणिक
- अनित्याः — अस्थायी
- तान् — उन (संवेदनाओं) को
- तितिक्षस्व — सहन कर
- भारत — हे भारतवंशी (अर्जुन)
हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख तथा दुख का अनुभव क्षण भंगुर है। ये स्थायी न होकर सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान हैं। हे भरतवंशी! मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना उनको सहन करना सीखे।

विस्तृत भावार्थ:
1. इन्द्रिय और विषय का संपर्क:
- “मात्रास्पर्शाः” का अर्थ है —
इन्द्रियों (जैसे त्वचा, कान, आंख आदि) का
बाहरी विषयों (जैसे ताप, ध्वनि, रूप आदि) से संपर्क। - जब यह संपर्क होता है, तब हम शीत (सर्दी), उष्ण (गर्मी),
सुख, या दुख का अनुभव करते हैं।
2. अनुभूतियाँ अस्थायी हैं:
- ये सभी अनुभव क्षणिक होते हैं —
“आगमापायिनः” यानी जो आते हैं और फिर चले जाते हैं। - जैसे मौसम बदलता है, वैसे ही दुख-सुख के अनुभव भी बदलते रहते हैं।
3. सहनशीलता का उपदेश:
- भगवान अर्जुन से कह रहे हैं —
इन क्षणिक अनुभवों को सहन करो, उनमें विचलित मत हो। - यह “तितिक्षा” कहलाती है —
सहन करना बिना क्रोध, भय या अशांति के।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
मात्रास्पर्शाः | इन्द्रिय-विषय संपर्क |
शीतोष्णसुखदुःखदाः | जीवन के विरोधाभासी अनुभव (द्वंद्व) |
आगमापायिनः | जो आते-जाते हैं — क्षणिकता का संकेत |
तितिक्षस्व | सहिष्णुता — आत्म-नियंत्रण और मानसिक संतुलन |
भारत (अर्जुन) | प्रतीक है विवेकशील मन का, जो संघर्ष के क्षणों से गुजरता है |
दार्शनिक और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टियाँ:
1. सुख-दुख की नश्वरता:
- सुख और दुख स्थायी नहीं हैं।
वे समय और परिस्थिति के अनुसार आते-जाते हैं। - इसलिए सुख में अहंकार नहीं करना चाहिए,
और दुख में विचलित नहीं होना चाहिए।
2. इन्द्रिय संयम ही आत्म-साक्षात्कार की पहली सीढ़ी है:
- इन्द्रियों के संगर्षों को सहने से
मन स्थिर होता है और
आत्मा के ज्ञान की ओर अग्रसर होता है।
3. समत्व की साधना:
- तितिक्षा यानी सहनशीलता,
समत्व (equanimity) की ओर पहला कदम है। - जीवन में हर कोई सुख चाहता है,
लेकिन दुख को भी समान दृष्टि से देखना
ही आध्यात्मिक परिपक्वता है।
जीवन के लिए शिक्षाएँ:
- सुख-दुख, सर्दी-गर्मी – ये सब अनुभव क्षणिक हैं।
उन्हें इतना महत्व मत दो कि वे तुम्हें हिला दें। - हर कठिनाई को धैर्यपूर्वक सहन करो।
यह तुम्हें मानसिक और आध्यात्मिक रूप से मजबूत बनाएगा। - इन्द्रिय-विषयों का मोह आत्मा की यात्रा में बाधक है।
उनसे उपर उठना सीखो। - “तितिक्षा” — सहनशीलता,
मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है।
चिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने सुख-दुख को बहुत अधिक गंभीरता से लेता हूँ?
क्या मैं सर्दी-गर्मी, प्रशंसा-आलोचना जैसी चीज़ों से विचलित हो जाता हूँ?
क्या मैं कठिन परिस्थितियों में “तितिक्षा” का अभ्यास करता हूँ?
क्या मेरा ध्यान स्थायी आत्मा पर है या अस्थायी अनुभवों पर?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को
मन की स्थिरता और सहनशीलता का अभ्यास करने को कहते हैं।
वे बताते हैं कि सुख-दुख जैसे अनुभव क्षणिक हैं,
उन्हें सहन करना ही धैर्य और आत्म-नियंत्रण का मूल है।
यह शिक्षा हर मनुष्य के लिए अमूल्य है —
जो भी जीवन में स्थिरता, शांति और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहता है।