मूल श्लोक – 15
श्रीभगवानुवाच —
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
शब्दार्थ:
- यम् — जिसको
- हि — निःसंदेह
- न व्यथयन्ति — विचलित नहीं करते
- एते — ये (सुख-दुःखादि द्वंद्व)
- पुरुषम् — पुरुष (व्यक्ति) को
- पुरुषर्षभ — हे पुरुषों में श्रेष्ठ (अर्जुन)
- समा दुःखसुखम् — सुख और दुःख में समान रहने वाला
- धीरम् — धैर्यशील, स्थिरबुद्धि वाला
- सः — वह
- अमृतत्वाय — अमरत्व के लिए, मोक्ष के लिए
- कल्पते — योग्य होता है
हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों परिस्थितियों में स्थिर रहता है, वह वास्तव में मुक्ति का पात्र है।

विस्तृत भावार्थ:
1. सुख-दुख की समानता:
भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि
जीवन में सुख और दुःख एक सिक्के के दो पहलू हैं।
परंतु जो व्यक्ति इनसे प्रभावित नहीं होता,
वह ही आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।
2. व्यथा से परे पुरुष:
“न व्यथयन्ति” का अर्थ है —
जिसे पीड़ा नहीं होती, या
जो मन से हिलता नहीं,
जिसका चित्त स्थिर रहता है,
वह व्यक्ति वास्तव में धैर्यशील (धीर) कहलाता है।
3. धैर्य और समत्व:
- “धीर” शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया जाता है
जो मन की स्थिरता, संयम और विवेक में स्थिर है। - वह व्यक्ति सुख में उन्मत्त नहीं होता और
दुःख में व्याकुल नहीं होता।
4. अमृतत्व का अर्थ:
“अमृतत्व” का अर्थ है —
मोक्ष, निर्वाण, आत्म-साक्षात्कार,
जहाँ जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।
- ऐसा व्यक्ति संसार की नश्वरता को समझता है
और आत्मा की नित्यता में स्थित रहता है।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
पुरुष | साधक, जिज्ञासु व्यक्ति |
समदुःखसुखं | द्वंद्व से मुक्त समदृष्टि |
धीर | धैर्य और विवेक से युक्त आत्मस्थ व्यक्ति |
अमृतत्व | मोक्ष, आत्मज्ञान, जन्म-मरण से मुक्ति |
पुरुषर्षभ (अर्जुन) | जागरूक आत्मा जो सत्य की खोज में है |
दार्शनिक और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टियाँ:
1. समत्व की साधना:
सच्चा साधक वह है जो
सुख में आसक्त नहीं होता और
दुख में टूटता नहीं है।
यही समत्व योग कहलाता है।
2. मोक्ष का द्वार — धैर्य:
- जो व्यक्ति धैर्यपूर्वक विपरीत परिस्थितियों को सहता है,
वही मोक्ष के योग्य बनता है। - आत्मा के अनुभव के लिए
मन की स्थिरता अनिवार्य है।
3. विवेक और संयम का महत्व:
- केवल दर्शन या वाणी से नहीं,
बल्कि जीवन में स्थिरता से
आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
जीवन के लिए शिक्षाएँ:
- सुख-दुःख को समभाव से देखने का अभ्यास करें।
दोनों ही क्षणिक हैं, आत्मा पर उनका कोई प्रभाव नहीं। - धैर्यशीलता (धीरता) ही मोक्ष की पहली शर्त है।
बिना धैर्य के आत्मा की अनुभूति नहीं हो सकती। - भावनात्मक स्थिरता और आत्मनियंत्रण को विकसित करें।
यही आध्यात्मिक उन्नति की आधारशिला है। - द्वंद्वों में स्थिर रहना ही मोक्ष का द्वार खोलता है।
यही भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश है।
चिंतन के प्रश्न:
क्या मैं दुःख में व्यथित हो जाता हूँ?
क्या सुख के समय मेरा मन अधिक उछलता है?
क्या मेरे जीवन में धैर्य और समत्व है?
क्या मैं मोक्ष की ओर उन्मुख हूँ या संसार के द्वंद्वों में उलझा हुआ?
निष्कर्ष:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में
धैर्य, समत्व और मानसिक संतुलन की महत्ता बताते हैं।
जो व्यक्ति इन गुणों को धारण करता है,
वही वास्तव में आत्मज्ञान और अमरत्व का अधिकारी बनता है।
यह उपदेश आध्यात्मिक साधना के मूल सिद्धांतों में से एक है —
स्थिर चित्त, समभाव और धैर्य।