मूल श्लोक: 27
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- जातस्य — जन्मे हुए (प्राणी) का
- हि — निश्चय ही
- ध्रुवः — निश्चित
- मृत्युः — मृत्यु
- ध्रुवं — निश्चित
- जन्म — जन्म
- मृतस्य — मरे हुए का
- च — और
- तस्मात् — इसलिए
- अपरिहार्ये — अपरिहार्य (जिससे बचा नहीं जा सकता)
- अर्थे — वस्तु या स्थिति में
- न — नहीं
- त्वं — तुम
- शोचितुम् — शोक करना
- अर्हसि — योग्य हो
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें अपरिहार्य के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में संसार के सबसे बुनियादी और अटल सत्य को स्पष्ट करते हैं —
“मृत्यु और जन्म का चक्र अपरिहार्य है।”
- जन्म हुआ है, तो मृत्यु निश्चित है।
चाहे कोई कितना भी बलवान, ज्ञानी, या पुण्यात्मा क्यों न हो — शरीर का अंत होगा ही। - मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी निश्चित है।
जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है, वैसे ही जीवन और मृत्यु का चक्र चलता रहता है। - इस सत्य को जानकर दुखी होना मूर्खता है।
कोई भी इस नियम से बच नहीं सकता — यह अपरिहार्य है।
दर्शनिक अंतर्दृष्टि:
| तत्व | अर्थ |
|---|---|
| ध्रुव | अटल, अपरिवर्तनीय, निश्चित |
| मृत्यु | शारीरिक शरीर का अंत, पर आत्मा का नहीं |
| जन्म | आत्मा की नई यात्रा का प्रारंभ |
| अपरिहार्य | वह जो प्रकृति के नियम में है, जिसे टालना असंभव है |
इस श्लोक में श्रीकृष्ण शुद्ध तर्क से अर्जुन के भ्रम को काटते हैं —
तुम उस पर क्यों शोक कर रहे हो जो सभी को सहना ही है?
प्रतीकात्मक अर्थ:
- मृत्यु = परिवर्तन का एक माध्यम
- जन्म = पुनः कर्मभूमि में प्रवेश
- शोक = अज्ञान या मोह से उपजा अस्वीकार
- अपरिहार्यता = ईश्वर की बनाई व्यवस्था
जीवन उपयोगिता:
- जो चीज़ें हमारी शक्ति और नियंत्रण में नहीं हैं, उन्हें लेकर चिंता और शोक व्यर्थ है।
- मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक क्रमिक परिवर्तन है।
- सत्य को समझकर कर्तव्य पर अडिग रहना ही वास्तविक ज्ञान है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं मृत्यु को जीवन के सहज नियम की तरह स्वीकार कर पाया हूँ?
क्या मैं ऐसे विषयों पर शोक करता हूँ जिनसे बचा नहीं जा सकता?
क्या मेरा जीवन सत्य के आधार पर चल रहा है या मोह और भय पर?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन-मरण के अटल सत्य को उजागर करते हैं और बताते हैं कि
मृत्यु से डरना या शोक करना बुद्धिमानी नहीं है — यह तो प्रकृति का शाश्वत नियम है।
जो अपरिहार्य है, उसे ज्ञानपूर्वक स्वीकार कर कर्तव्य के मार्ग पर अडिग रहना ही धर्म है।
यह श्लोक मानसिक संतुलन और आध्यात्मिक दृष्टि विकसित करने का आह्वान करता है।
