मूल श्लोक: 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
अव्यक्तादीनि — प्रारंभ में अदृश्य या अव्यक्त
भूतानि — सभी जीव
व्यक्त — प्रकट, दृश्य
मध्यानि — बीच में
भारत — हे भारतवंशी अर्जुन
अव्यक्त — अदृश्य, न दिखाई देने वाले
निधनानि — समाप्त, मृत्यु को प्राप्त
एव — निश्चित ही
तत्र — फिर, उस पर
का — क्या
परिदेवना — शोक, विलाप
हे भरतवंशी! समस्त जीव जन्म से पूर्व अव्यक्त रहते हैं, जन्म होने पर व्यक्त हो जाते हैं और मृत्यु होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः ऐसे में शोक व्यक्त करने की क्या आवश्यकता है।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण जीवन के रहस्यमय चक्र को सरल रूप में समझाते हैं।
वह कहते हैं कि कोई भी प्राणी जब जन्म नहीं लेता, तब वह अव्यक्त रहता है — अर्थात् उसकी कोई दृश्य उपस्थिति नहीं होती।
जब वह जन्म लेकर शरीर धारण करता है, तभी वह व्यक्त होता है — हम उसे देख सकते हैं, पहचान सकते हैं, उससे जुड़ते हैं।
और जब मृत्यु आती है, तब वह प्राणी पुनः अव्यक्त अवस्था में चला जाता है — अर्थात् आत्मा शरीर छोड़ देती है और वह फिर हमारे दृष्टि क्षेत्र से बाहर हो जाता है।
इसलिए संपूर्ण अस्तित्व का आरंभ और अंत दोनों ही अदृश्य हैं — केवल मध्य का काल दृश्य होता है।
जब हम जन्म के पहले की अवस्था को नहीं जानते, और मृत्यु के बाद की अवस्था को भी नहीं जानते, तो केवल थोड़े से समय के लिए दृश्य हुए जीवन पर इतना शोक क्यों किया जाए?
यह शोक केवल अज्ञान का ही परिणाम है, क्योंकि आत्मा सदा विद्यमान रहती है — बस उसके प्रकट और अप्रकट होने की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
अव्यक्त | वह जो इंद्रियों से परे है, जिसे देखा नहीं जा सकता |
व्यक्त | जो इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जा सकता है |
भूतानि | समस्त जीवात्माएँ |
परिदेवना | शोक करना, दुःख प्रकट करना |
श्रीकृष्ण का यह दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत से मेल खाता है — आत्मा न जन्म लेती है न मरती है।
वह केवल शरीर के प्रकट और अप्रकट होने का अनुभव करती है।
इसलिए जो शाश्वत है, उसमें परिवर्तन मानकर शोक करना अज्ञान है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- अव्यक्त (जन्म से पूर्व) = आत्मा की रहस्यमय स्थिति, जिसे कोई जान नहीं सकता
- व्यक्त (जीवन काल) = आत्मा का शरीर में प्रकट होना
- अव्यक्त (मृत्यु के बाद) = पुनः आत्मा का शरीर छोड़कर अदृश्य हो जाना
- परिदेवना (शोक) = माया और मोह का परिणाम, सत्य को न पहचान पाना
जीवन उपयोगिता:
- हम जीवन के उस हिस्से को देखकर दुखी होते हैं जो अस्थायी रूप से प्रकट हुआ था।
- परंतु शास्त्र कहते हैं कि आत्मा का न आदि है न अंत — वह सदा है, सदा रहेगी।
- जब हम किसी के चले जाने पर विलाप करते हैं, तो यह हमारी सीमित दृष्टि का संकेत है।
- यदि हम जान लें कि आत्मा केवल दृश्य से अदृश्य हुई है — नष्ट नहीं — तो हमारे भीतर संतुलन और शांति बनी रह सकती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं जीवन के रहस्यों को केवल दृश्यता से ही जोड़कर देखता हूँ?
क्या मैं यह समझ पा रहा हूँ कि आत्मा का अव्यक्त रहना ही उसका स्वाभाविक स्वरूप है?
क्या मेरा शोक किसी के वास्तविक लोप पर है या केवल उसकी दृश्यता के अंत पर?
क्या मैं मृत्यु को अंत मान रहा हूँ या परिवर्तन?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें यह गहन सत्य समझाते हैं कि प्राणी का आरंभ और अंत दोनों ही रहस्य से भरे हुए हैं — केवल उसका मध्यकाल ही हमें दृष्टिगोचर होता है।
इसलिए उस पर शोक करना कोई विवेकपूर्ण कार्य नहीं है।
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि आत्मा नष्ट नहीं होती — वह केवल दृष्टिगत रूप से कुछ समय के लिए हमारे पास आती है और फिर अदृश्य हो जाती है।
यह श्लोक हमें जीवन की असली प्रकृति पहचानने और मानसिक शांति विकसित करने का सशक्त माध्यम देता है।