मूल श्लोक: 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
आश्चर्यवत् — आश्चर्य की भाँति
पश्यति — देखता है
कश्चित् — कोई कोई
एनम् — इस आत्मा को
आश्चर्यवत् — आश्चर्य के समान
वदति — कहता है, वर्णन करता है
तथा एव — उसी प्रकार
च — और
अन्यः — अन्य व्यक्ति
शृणोति — सुनता है
श्रुत्वा अपि — सुनने के बाद भी
एनम् — इस आत्मा को
वेद न — नहीं जान पाता
च — और
एव — निश्चय ही
कश्चित् — कोई कोई
कुछ लोग आत्मा को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं, कुछ लोग इसे आश्चर्य बताते हैं और कुछ इसे आश्चर्य के रूप मे सुनते हैं जबकि अन्य लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ समझ नहीं पाते।

विस्तृत भावार्थ:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मा के रहस्यमय स्वरूप को बताते हैं।
वह कहते हैं कि आत्मा को जानना सरल नहीं है।
- कोई व्यक्ति उसे देखता है तो उसे आश्चर्य होता है कि कोई ऐसा भी है जो न जन्म लेता है, न मरता है।
- कोई इसे बोलकर बताने का प्रयास करता है, परंतु शब्द उस सत्य को पूरी तरह प्रकट नहीं कर सकते।
- कोई इसे सुनता है, परंतु सुनने के बाद भी वह आत्मा की सच्चाई को समझ नहीं पाता।
अर्थात् आत्मा की पहचान, उसका अनुभव, उसका ज्ञान — ये सब अत्यंत सूक्ष्म, गूढ़ और आश्चर्यजनक हैं।
जो केवल इंद्रिय और बुद्धि पर आधारित है, वह आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता।
आत्मा को अनुभव करना होता है — जानना नहीं, महसूस करना होता है — समझाना नहीं।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
आश्चर्य | आत्मा का स्वरूप चमत्कारी, इंद्रियों से परे |
पश्यति | देखने वाला भी उसे नहीं समझ पाता |
वदति | कहने वाला भी उसके स्वरूप को सीमित करता है |
शृणोति | सुनने वाला भी केवल सतही ज्ञान पाता है |
वेद न | जान नहीं पाता क्योंकि आत्मा ज्ञान से परे है |
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के उस मूल सिद्धांत को पुष्ट करता है कि आत्मा को “ज्ञेय” (जानने योग्य) नहीं, बल्कि “द्रष्टा” और “स्वरूप” रूप में अनुभूत किया जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- आश्चर्यवत् देखना = जब कोई पहली बार आत्मा के विचार से परिचित होता है, तो चमत्कृत हो जाता है।
- आश्चर्यवत् कहना = शब्दों से आत्मा को परिभाषित करने का प्रयास, जो अपूर्ण है।
- आश्चर्यवत् सुनना = सुनकर भी आत्मा को जानना कठिन, जैसे कोई रहस्य सुन रहा हो।
- न जान पाना = क्योंकि आत्मा को तर्क या भाषा से नहीं, साधना से जाना जाता है।
जीवन उपयोगिता:
- आज का मानव विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान — सब आत्मा को केवल एक मानसिक या शारीरिक प्रक्रिया मानने का प्रयास करते हैं।
- परंतु श्रीकृष्ण बताते हैं कि आत्मा को केवल बाह्य दृष्टि से देखना या सुनना पर्याप्त नहीं है।
- आत्मा को जानने के लिए आत्मानुभूति, साधना, ध्यान और विवेक की आवश्यकता है।
- जब हम किसी संत या ज्ञानी को सुनते हैं, तब लगता है कि उन्होंने आत्मा को जाना है — परंतु स्वयं के अनुभव के बिना यह ज्ञान अधूरा है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं आत्मा को केवल विचार या धारणा के रूप में देख रहा हूँ, या अनुभूति के रूप में?
क्या मैंने आत्मा को केवल दूसरों से सुना है, या स्वयं अनुभूत करने का प्रयास किया है?
क्या मेरा आध्यात्मिक ज्ञान केवल शब्दों तक सीमित है, या मैं उसे जीवन में जी रहा हूँ?
क्या मैं इस आश्चर्य को समझने के लिए ध्यान, साधना और मौन का सहारा ले रहा हूँ?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में आत्मा को ‘आश्चर्य’ के रूप में चित्रित किया गया है — न देखने से वह समझ आती है, न कहने से, न सुनने से।
केवल साधक ही उसे अनुभव कर सकता है।
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि आत्मा एक ऐसा सत्य है जिसे सामान्य बुद्धि नहीं समझ सकती — यह आत्मानुभूति का विषय है।
यह श्लोक हमें आम सोच से ऊपर उठकर आत्मचिंतन और साधना की ओर प्रेरित करता है, ताकि हम स्वयं उस ‘आश्चर्य’ का अनुभव कर सकें जो आत्मा है।