मूल श्लोक: 30
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
देही — शरीरधारी आत्मा
नित्यम् — सदा रहने वाली, नित्य
अवध्यः — जिसे मारा नहीं जा सकता, अवध्य
अयम् — यह (आत्मा)
देहे — शरीर में
सर्वस्य — सभी प्राणियों के
भारत — हे भारतवंशी अर्जुन
तस्मात् — इसलिए
सर्वाणि — समस्त
भूतानि — जीव या प्राणी
न — नहीं
त्वम् — तुम
शोचितुम् — शोक करना
अर्हसि — योग्य हो
हे अर्जुन! शरीर में निवास करने वाली आत्मा अविनाशी है इसलिए तुम्हें किसी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मा की सार्वभौमिकता और अमरत्व को स्पष्ट करते हैं।
वे अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि आत्मा केवल तुम्हारे परिजनों में नहीं, बल्कि सभी प्राणियों में विद्यमान है।
यह आत्मा
- नित्य है — उसका कोई आदि और अंत नहीं,
- अवध्य है — उसे कोई अस्त्र, शस्त्र, या बाह्य बल मार नहीं सकता।
यदि आत्मा कभी मरती ही नहीं, तो उसके लिए शोक करना मूढ़ता है।
हम जो शोक करते हैं, वह वास्तव में शरीर के लिए होता है — आत्मा के लिए नहीं।
श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि न केवल अपने सगे-संबंधी, बल्कि सभी जीवों के लिए यह सिद्धांत समान रूप से लागू होता है।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
देही | आत्मा, जो देह में वास करती है |
नित्यम् | जो सदा है, कालातीत |
अवध्यः | जिस पर किसी प्रकार का प्रहार या हिंसा असर नहीं करती |
सर्वस्य देहे | प्रत्येक जीव के शरीर में आत्मा का वास |
शोचितुम् | शोक करना — मोह, अज्ञान और दुख का प्रतीक |
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के उस सिद्धांत को पुष्ट करता है कि आत्मा एक ही है, सभी में समान है और शाश्वत है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- देही = परमात्मा का अंश जो शरीर धारण करता है
- अवध्य = वह जो मृत्यु के बंधन से परे है
- शोक = अज्ञान से उत्पन्न पीड़ा
- सर्वाणि भूतानि = यह भाव कि सभी जीवों में वही आत्मा है — न कोई शत्रु, न कोई पराया
जीवन उपयोगिता:
- जब हमें किसी अपने की मृत्यु होती है, तब हम उसे खोया हुआ मानकर शोक करते हैं।
- परंतु इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण कहते हैं — तुमने कुछ खोया नहीं है, आत्मा तो है ही।
- केवल उसका शरीर चला गया, परंतु आत्मा तो नष्ट नहीं हुई।
- यदि हम आत्मा की नित्य उपस्थिति को समझ लें, तो हम हर मृत्यु को परिवर्तन की तरह देख पाएंगे, अंत की तरह नहीं।
- इससे जीवन में संतुलन, समत्व और शांति आती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं आत्मा को केवल सैद्धांतिक रूप में मानता हूँ, या अनुभव के स्तर पर भी?
जब कोई प्रियजन शरीर छोड़ता है, क्या मैं आत्मा की नित्य उपस्थिति को याद रखता हूँ?
क्या मैं सभी जीवों को आत्मा के दृष्टिकोण से देख पाता हूँ?
क्या मेरा शोक शरीर के प्रति मोह है या आत्मा के प्रति अज्ञान?
निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा केवल अमर ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों में समान रूप से उपस्थित है।
जब आत्मा को मारा ही नहीं जा सकता, और वह सभी में है — तो किसी के लिए भी शोक करना विवेकसंगत नहीं है।
यह श्लोक हमें अद्वैत की भावना — ‘सर्वभूतेषु आत्मभाव’ — की ओर ले जाता है, और सिखाता है कि जो नश्वर है उस पर मोह न रखें, और जो शाश्वत है — उस आत्मा का साक्षात्कार करें।
यह ज्ञान हमें न केवल शोक से मुक्त करता है, बल्कि जीवन के प्रति एक गंभीर और शांत दृष्टिकोण भी प्रदान करता है।