मूल श्लोक: 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥
शब्दार्थ
- व्यामिश्रेण इव — मिश्रित प्रतीत होने वाले
- वाक्येन — वचनों से, उपदेशों से
- बुद्धिं — बुद्धि, निर्णयशक्ति
- मोहयसि इव — भ्रमित कर रहे हो जैसे
- मे — मेरी
- तत् — वह
- एकं — एकमात्र, निश्चित
- वद — कहो
- निश्चित्य — सुनिश्चित करके, दृढ़ता से
- येन — जिसके द्वारा
- श्रेयः — परम कल्याण, श्रेष्ठ पथ
- अहम् — मैं
- आप्नुयाम् — प्राप्त कर सकूँ
आपके अस्पष्ट उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक अर्जुन के गहरे मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक द्वंद्व को उजागर करता है। पिछले अध्याय (अध्याय 2) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग (आत्मज्ञान), संन्यास, तथा कर्मयोग (निष्काम कर्म) की शिक्षा दी। परंतु वह उपदेश अर्जुन को एकरूप प्रतीत नहीं हुआ — उसे ऐसा लगा जैसे भगवान कर्म की निंदा कर रहे हैं, और फिर कर्म करने की प्रेरणा भी दे रहे हैं।
इसलिए अर्जुन अब विनम्रतापूर्वक आग्रह करता है कि कृपया एक ही मार्ग को निश्चित करके स्पष्ट रूप से बताइए, जिससे वह श्रेष्ठतम फल — “श्रेयः” अर्थात मोक्ष, शांति या आत्मकल्याण — को प्राप्त कर सके।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक शिष्य की मानसिक अवस्था का उत्कृष्ट उदाहरण है। अर्जुन जैसे ज्ञानी योद्धा की बुद्धि भी जब मोह और शंका से घिर जाती है, तो वह गुरु से स्पष्टता की माँग करता है। यह गीता का एक महत्वपूर्ण मोड़ है, क्योंकि यहाँ से श्रीकृष्ण “कर्मयोग” का सुदृढ़ और व्यावहारिक मार्ग विस्तार से समझाना प्रारंभ करते हैं।
अर्जुन की यह माँग यह भी दर्शाती है कि केवल ज्ञान देने से काम नहीं चलता — जब तक वह ज्ञान संपूर्ण स्पष्टता और आत्मानुभूति में नहीं बदलता, तब तक मन भ्रमित रहता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- व्यामिश्र वाक्य — जीवन में मिलने वाले विभिन्न मत, मार्ग या सलाह
- बुद्धि का मोह — आत्मा और शरीर, कर्तव्य और विरक्ति के बीच द्वंद्व
- निश्चित एक मार्ग — संकल्प, साधना और स्पष्ट लक्ष्य की आवश्यकता
- श्रेयः — केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कल्याण का पथ
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जब जीवन में विकल्प अधिक हों और हर मार्ग सही प्रतीत हो रहा हो, तब गुरु या मार्गदर्शक से स्पष्ट मार्गदर्शन आवश्यक होता है।
- भ्रम की स्थिति में निर्णय न लेकर स्पष्टता प्राप्त करना अधिक श्रेष्ठ होता है।
- केवल ज्ञान नहीं, स्पष्ट क्रिया मार्ग (एकनिष्ठ साधना) ही व्यक्ति को “श्रेयः” की ओर ले जाता है।
- अर्जुन की तरह हर साधक को अपने गुरु से खुलकर संवाद करना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने जीवन में आत्मकल्याण का स्पष्ट मार्ग जानता हूँ?
क्या मेरे अंदर भी द्वंद्व हैं जहाँ एक ओर त्याग है और दूसरी ओर कर्तव्य?
क्या मैंने कभी किसी गुरु से मार्गदर्शन माँगने का साहस किया है जब मेरी बुद्धि भ्रमित थी?
क्या मैं ‘श्रेयः’ और ‘प्रेयः’ (क्षणिक सुख) में अंतर कर पाता हूँ?
क्या मैं यह समझने की कोशिश करता हूँ कि जीवन में वास्तव में क्या श्रेष्ठ है?
निष्कर्ष
यह श्लोक केवल अर्जुन की शंका नहीं, बल्कि हर साधक के हृदय की पुकार है जो सच्चाई को स्पष्ट रूप से जानना चाहता है। अर्जुन यहाँ गुरु से आग्रह करता है कि उसे एकनिष्ठ, स्पष्ट और निश्चित साधना मार्ग बताया जाए।
श्रीकृष्ण इस आग्रह के बाद कर्मयोग की अद्वितीय व्याख्या करते हैं। यह दर्शाता है कि जब शिष्य मन से समर्पण करता है और जिज्ञासा से प्रश्न करता है, तब गुरु भी पूरी करुणा से पूर्ण ज्ञान प्रदान करता है।
यह श्लोक हमें सिखाता है: “जब मन भ्रमित हो, तब स्पष्ट मार्ग माँगना ही सच्ची बुद्धिमानी है।”
और गुरु की कृपा से ही ‘श्रेयः’ — आत्मिक कल्याण — संभव है।
