मूल श्लोक: 27
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
शब्दार्थ
- प्रकृतेः — प्रकृति की (मूल शक्ति)
- क्रियमाणानि — किए जा रहे हैं
- गुणैः — गुणों द्वारा (सत्त्व, रजस्, तमस्)
- कर्माणि — कर्म
- सर्वशः — सभी प्रकार के
- अहङ्कार — अहंकार, मैं-पन
- विमूढात्मा — मोह या अज्ञान से ग्रस्त आत्मा
- कर्ताऽहम् — मैं ही करता हूँ
- इति मन्यते — ऐसा मानता है
जीवात्मा देह के मिथ्या ज्ञान के कारण स्वयं को अपने सभी कर्मों का कर्ता समझती है।यद्यपि विश्व के सभी कार्य प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होते हैं लेकिन अहंकारवश जीवात्मा स्वयं को अपने सभी कर्मों का कर्ता समझती है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कर्म, अहंकार और आत्मज्ञान के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि संसार में जितने भी कर्म होते हैं, वे प्रकृति द्वारा ही संपन्न होते हैं — अर्थात सत्व, रजस और तमस नामक तीन गुण ही शरीर और मन के माध्यम से कार्य कराते हैं।
लेकिन वह जीवात्मा, जो अपने को केवल शरीर मान बैठा है, और अहंकार में डूबा हुआ है, वह सोचता है कि “मैं ही यह सब कर रहा हूँ।” यह “कर्तृत्व का भाव” — ‘मैं कर रहा हूँ’ — ही बंधन और दुःख का कारण बन जाता है।
असल में आत्मा अकर्ता (कर्तापन से रहित) और साक्षी है। वह केवल साक्षी भाव से अनुभव करता है, परंतु जब वह अहंकार से युक्त हो जाता है, तो कर्मों को अपना मान लेता है और मोह, दुख, और बंधन में फँस जाता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत और सांख्य दर्शन दोनों के मूल तत्व को स्पष्ट करता है। आत्मा, जो परम सत्य है, वह अकर्ता है — वह न करता है, न करवाता है, केवल साक्षी है। सभी कर्म शरीर और मन के स्तर पर होते हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों से संचालित होते हैं।
परंतु जब आत्मा की पहचान शरीर और मन से हो जाती है — यानी जब “अहंकार” उत्पन्न होता है — तब व्यक्ति को भ्रम हो जाता है कि वह ‘कर्ता’ है। यही भ्रम जन्म-मरण के चक्र और कर्मबंधन का मूल कारण है।
इस श्लोक का मर्म यही है: जब तक “मैं” का भाव रहेगा, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रकृतेः गुणैः — संसार की शक्ति, जो मन और शरीर को गति देती है
- कर्माणि सर्वशः — जो भी हम सोचते, बोलते, या करते हैं
- अहंकारविमूढात्मा — जो आत्मा को शरीर समझकर ‘मैं’ और ‘मेरा’ के जाल में फँस चुका है
- कर्ताऽहमिति — ‘मैं ही सब कुछ करता हूँ’ — यही भ्रम बंधन का बीज है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मा अकर्ता है; सभी कर्म प्रकृति से होते हैं
- अहंकार से व्यक्ति स्वयं को कर्ता मान बैठता है
- यही ‘कर्तापन’ का भ्रम जन्म और कर्मबंधन का कारण है
- ज्ञान से ही इस भ्रम का नाश हो सकता है
- स्वयं को प्रकृति और आत्मा से अलग पहचानने पर ही मोक्ष संभव है
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं यह जानता हूँ कि वास्तव में कर्म कौन कर रहा है — मैं या प्रकृति?
क्या मैं अपनी पहचान शरीर और मन से करता हूँ या आत्मा से?
क्या मेरे भीतर ‘मैं करता हूँ’ का अहंकार अब भी है?
क्या मैं साक्षी भाव से अपने कर्मों को देख पा रहा हूँ?
क्या मैं कर्म करता हुआ भी स्वयं को अकर्ता अनुभव कर सकता हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक आत्मा की प्रकृति और कर्म के वास्तविक कर्ता के बीच के भेद को स्पष्ट करता है। श्रीकृष्ण यह शिक्षा देते हैं कि हम अपने जीवन में जब भी ‘मैं’ या ‘मेरा’ के भाव से कार्य करते हैं, तो हम माया में फँस जाते हैं। यह ‘कर्तापन’ का अहंकार ही सारे बंधनों की जड़ है।
यदि हम इस ज्ञान को जीवन में आत्मसात कर लें — कि हम केवल साक्षी हैं, और सभी कार्य प्रकृति के गुणों द्वारा हो रहे हैं — तो हम कर्म करते हुए भी बंधन से मुक्त हो सकते हैं।
यही निष्काम कर्मयोग का सार है। यही आत्मा की स्वतंत्रता और शांति का मार्ग है।
