मूल श्लोक – 39
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥39॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
एतत् | यह (संदेह) |
मे | मेरा |
संशयम् | संदेह, शंका |
कृष्ण | हे कृष्ण! (भगवान श्रीकृष्ण के प्रति संबोधन) |
छेत्तुम् | निवारण करना, समाप्त करना |
अर्हसि | आप योग्य हैं |
अशेषतः | पूर्णतः, पूरी तरह से |
त्वत्-अन्यः | आप के अतिरिक्त कोई अन्य |
संशस्य | इस संदेह का |
छेत्ता | निवारक, हल करने वाला |
न हि उपपद्यते | संभव नहीं है, प्राप्त नहीं होता |
हे कृष्ण! कृपया मेरे इस सन्देह का पूर्ण निवारण करें क्योंकि आपके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है जो ऐसा कर सके।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि वे उनके गंभीर और गहन संदेह का संपूर्ण समाधान करें।
पिछले श्लोकों में अर्जुन ने योग में असफल हुए साधक की गति को लेकर अनेक प्रश्न उठाए। अब वह यह स्पष्ट करते हैं कि इस शंका का उत्तर सिर्फ भगवान श्रीकृष्ण ही दे सकते हैं — क्योंकि वे ही पूर्ण ज्ञान के स्रोत हैं, और आत्मा तथा योग की गूढ़ स्थितियों को जानने में सक्षम हैं।
यह श्लोक अर्जुन की नम्रता, भक्ति और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है। वह स्वीकार करता है कि ऐसी जटिल आध्यात्मिक शंकाओं का उत्तर न तो किसी मुनि, न ग्रंथ, न तर्क दे सकता है — केवल भगवान ही दे सकते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक दर्शाता है कि गंभीर आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर तर्क या केवल अध्ययन से नहीं मिलते, बल्कि उन्हें एक ज्ञानवान, अनुभवी, आत्मसाक्षात्कारी गुरु या भगवान ही स्पष्ट कर सकते हैं।
अर्जुन का यह भाव – “आप ही मेरे संशय को छिन्न कर सकते हैं” – यह भी बताता है कि भगवद्गीता का संवाद केवल जिज्ञासा का नहीं, विश्वास और आत्मसमर्पण का भी है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि
- सत्य की खोज में संदेह स्वाभाविक है।
- लेकिन उस संदेह का समाधान केवल एक पूर्ण ज्ञानी पुरुष या भगवान ही कर सकते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
संशय | साधक की आत्मिक यात्रा में उत्पन्न भ्रम |
छेत्ता | ज्ञान का प्रकाश, जो अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करता है |
अशेषतः | केवल तर्क से नहीं, बल्कि अनुभव के स्तर तक संदेह का पूर्ण अंत |
त्वदन्यः | सच्चा गुरु या ईश्वर ही आध्यात्मिक संशयों का समाधान कर सकता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- संदेह आध्यात्मिक यात्रा का एक अंग है, उसे दबाना नहीं चाहिए।
- लेकिन संदेह के समाधान के लिए हमेशा सही स्रोत की ओर मुड़ना चाहिए — जैसे गुरु, ईश्वर या शास्त्र।
- आत्मसमर्पण केवल भक्ति नहीं, ज्ञान प्राप्ति का भी माध्यम है।
- जब हम अपने मन की उलझनों को ईश्वर के सामने रखते हैं, तो उत्तर हमें गहराई से मिलता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने संदेहों को खुलकर स्वीकार करता हूँ?
- क्या मैं ईश्वर या गुरु में इतना विश्वास रखता हूँ कि उनसे समाधान माँग सकूँ?
- क्या मैं जिज्ञासु हूँ या केवल श्रद्धालु?
- क्या मैंने कभी गीता को एक जीवंत संवाद की तरह देखा है, जहाँ मैं भी अर्जुन हो सकता हूँ?
- क्या मैं अपने मन के संदेहों का समाधान आध्यात्मिक मार्ग से खोजता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक अर्जुन की उस गहराई को दर्शाता है जहाँ वह केवल प्रश्न नहीं कर रहा, बल्कि उत्तर के लिए स्वयं को पूरी तरह भगवान पर समर्पित कर रहा है।
“हे प्रभु! मेरे इस संशय का समाधान आप ही कर सकते हैं — न कोई दूसरा, न कोई तर्क, न कोई ग्रंथ!”
यह भाव एक शिष्य और गुरु के मध्य का आदर्श संवाद है, जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और समाधान तीनों एक साथ मिलते हैं।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि
“संदेह तब तक बाधक नहीं, जब तक हम उसका समाधान सही जगह खोजते हैं।”
और सबसे उचित स्थान — ईश्वर स्वयं हैं।