Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 8, Sloke 9

मूल श्लोक – 9

कविं पुराणमनुशासितारं
अणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: |
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपं
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिन्दी अर्थ
कविम्सर्वज्ञ, ज्ञानी, दूरदर्शी
पुराणम्सनातन, आदिकाल से विद्यमान
अनुशासितारम्नियमन करने वाला, संचालक
अणो: अणीयांसम्अणु से भी सूक्ष्म
अनुस्मरेत् य:जो स्मरण करता है
सर्वस्य धातारम्सम्पूर्ण सृष्टि का धारण-पोषण करने वाला
अचिन्त्यरूपम्जिसकी स्वरूपना बुद्धि की पहुँच से परे है
आदित्यवर्णम्सूर्य के समान तेजयुक्त
तमस: परस्तात्अज्ञान के अंधकार से परे

भगवान सर्वज्ञ, आदि पुरूष, नियन्ता, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, सबका पालक, अज्ञानता के सभी अंधकारों से परे और सूर्य से अधिक तेजवान हैं और अचिंतनीय दिव्य स्वरूप के स्वामी हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा के उस दिव्य स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं, जिसका स्मरण मरण के समय किया जाना चाहिए।

कविम् — परमात्मा सर्वज्ञ हैं; उन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान सब ज्ञात है। उनका दृष्टिकोण सीमित नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय है।
पुराणम् — वे नित्य हैं, जिनकी कोई उत्पत्ति नहीं; न आदि न अंत।
अनुशासितारम् — वे इस सृष्टि के नियमों के अधिष्ठाता हैं; प्रकृति के संचालन में वही तत्त्व कार्य कर रहा है।
अणोः अणीयांसम् — वे इतना सूक्ष्म हैं कि हमारी इंद्रियाँ या मन उन्हें पकड़ नहीं सकते, फिर भी वे सब में विद्यमान हैं।
सर्वस्य धातारम् — वे ही समस्त सृष्टि का पोषण करते हैं — चाहे वह जीवात्मा हो या जड़ पदार्थ।
अचिन्त्यरूपम् — उनका वास्तविक स्वरूप चिन्तन की सीमा से परे है; जिसे तर्क, कल्पना या दृश्य रूप में समझा नहीं जा सकता।
आदित्यवर्णम् — वे प्रकाशस्वरूप हैं, ज्ञान एवं चेतना के तेज से पूर्ण।
तमसः परस्तात् — वे अज्ञान और अविद्या के पार स्थित हैं; आत्मज्ञान का प्रतीक हैं।

इस प्रकार, यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय किसी व्यक्ति के मन में यदि इस प्रकार का ईश्वर स्मरण हो, तो वह उसे ब्रह्मलोक या मोक्ष की ओर ले जाता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक आत्मा और परमात्मा के उस सम्बन्ध को रेखांकित करता है जो केवल शुद्ध, सूक्ष्म और निरंतर स्मरण द्वारा संभव है।

  • यह स्मरण “ईश्वर की महिमा” का स्मरण है, न कि किसी मूर्त रूप का।
  • ईश्वर का यह रूप अदृश्य, अव्यक्त, सर्वज्ञ, प्रकाशस्वरूप और निराकार-निरुपम है।
  • मृत्यु के समय यह स्मरण तभी संभव है जब जीवन भर उसका अभ्यास रहा हो।
  • यह श्लोक उपनिषदों की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है, जहाँ ब्रह्म को “सूक्ष्मतम, परन्तु सर्वव्यापक” कहा गया है।

प्रतीकात्मक अर्थ

श्लोकांशप्रतीकात्मक अर्थ
कविं पुराणम्परमज्ञान, सनातन सत्य
अनुशासितारम्सृष्टि के नियम और कर्मफल का नियंता
अणो: अणीयांसम्परमात्मा की सूक्ष्म उपस्थिति — अंतर्यामी
सर्वस्य धातारम्वह शक्ति जो सबका पालन करती है — ब्रह्म
अचिन्त्यरूपम्जिसे न इन्द्रियाँ जान सकती हैं, न बुद्धि
आदित्यवर्णम्चेतना का तेज, आत्मप्रकाश
तमसः परस्तात्अज्ञान से परे, शुद्ध ज्ञान

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • भगवान को जानना केवल बाहरी साधना से नहीं, बल्कि अन्त:करण की गहराइयों में उतरकर संभव है।
  • भगवान का स्वरूप कोई स्थूल मूर्ति नहीं, वह सूक्ष्मतम चेतना है।
  • “तमसः परस्तात्” — ईश्वर को जानने के लिए हमें अज्ञान, मोह और वासनाओं से ऊपर उठना होगा।
  • मृत्यु के समय जैसा भाव होगा, वही गति तय करता है। इसलिए जीवन भर भगवान के इस ज्ञानस्वरूप को हृदय में बसाना चाहिए।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं भगवान को केवल किसी मूर्ति या नाम तक सीमित मानता हूँ, या उनके व्यापक ज्ञानस्वरूप को भी समझता हूँ?
  2. क्या मेरे ध्यान में “कविं पुराणम्” — सर्वज्ञ और सनातन रूप का स्मरण होता है?
  3. क्या मैंने कभी सोचा है कि ईश्वर अणु से भी सूक्ष्म होकर सबमें समाए हैं?
  4. क्या मेरा अभ्यास मुझे मृत्यु के समय “अचिन्त्यरूप” का स्मरण करने योग्य बना रहा है?
  5. क्या मैं अपने भीतर के अंधकार से बाहर निकलकर आत्मप्रकाश की ओर अग्रसर हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक एक उच्च आध्यात्मिक साधना की ओर संकेत करता है —
जहाँ ईश्वर न केवल एक उपास्य हैं, बल्कि एक ऐसी सर्वशक्तिमान चेतना हैं, जो अणु से भी सूक्ष्म होकर सर्वव्यापक है, सनातन है, और अज्ञान से परे है।

स्मरण का स्वरूप जितना सूक्ष्म और ज्ञानयुक्त होगा, उतनी ही उच्च गति आत्मा को प्राप्त होगी।
जीवन का उद्देश्य केवल परमात्मा की अनुभूति हो — तो मृत्यु का क्षण ईश्वर-मिलन का क्षण बन जाएगा।

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