मूल श्लोक:
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते॥20॥
शब्दार्थ:
- अथ — तब, तत्पश्चात्
- व्यवस्थितान् दृष्ट्वा — सुसज्जित और व्यवस्थित रूप से खड़े हुए देख कर
- धार्तराष्ट्रान् — धृतराष्ट्र के पुत्रों (कौरवों) को
- कपिध्वजः — कपिध्वज भगवान श्रीकृष्ण (जिसके ध्वज पर भगवान हनुमान का चित्र है)
- प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते — शस्त्रों के प्रचंड प्रयोग के समय
- धनुरुद्यम्य पाण्डवः — धनुष उठाकर पांडव (अर्जुन)
- हृषीकेशं — श्रीकृष्ण, जो हृषीका (इंद्रियों) के स्वामी हैं
- तदा वाक्यम् इदम् आह — तब यह वाक्य बोले
- महीपते — महाराज (धृतराष्ट्र के प्रति सम्बोधन)
उस समय हनुमान के चित्र से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर बाण चलाने के लिए उद्यत दिखाई दिये। हे राजन! आपके पुत्रों को अपने विरुद्ध व्यूह रचना में खड़े देख कर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह वचन कहे।

सरल अनुवाद:
तब कपिध्वज (श्रीकृष्ण) ने व्यवस्थित खड़े हुए कौरवों को देखकर,
जब शस्त्रों का प्रचंड युद्ध प्रारंभ हुआ,
तभी अर्जुन ने धनुष उठाया और श्रीकृष्ण से यह वचन कहा, महाराज!
भावार्थ:
इस श्लोक में युद्ध की शुरुआत के साथ ही अर्जुन धनुष उठाकर युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। इसी समय श्रीकृष्ण, जिन्हें कपिध्वज कहा गया है, कौरवों की व्यवस्थित सेना को देखकर अर्जुन को संबोधित करते हैं। यह युद्ध के निर्णायक क्षण का प्रारंभ है, जहाँ ध्यान और मनोबल की आवश्यकता अत्यधिक है।
विस्तृत भावार्थ:
- अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् — युद्ध के दृश्यों का निरीक्षण:
कपिध्वज अर्थात श्रीकृष्ण ने कौरवों को व्यवस्थित, संगठित और दृढ़ स्थिति में खड़ा देखा। यह दर्शाता है कि विरोधी पूरी शक्ति से तैयार हैं। - प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते — युद्ध की तीव्र शुरुआत:
शस्त्रों के सम्पात (धमाकों, तीरों की वर्षा) के साथ युद्ध प्रारंभ हुआ। यह युद्ध का वह पल है जो सबसे अधिक निर्णायक और तनावपूर्ण होता है। - धनुरुद्यम्य पाण्डवः — अर्जुन का युद्ध के लिए सजग होना:
अर्जुन, जो पांडवों के मुख्य योद्धा हैं, ने धनुष उठाया और युद्ध में लग गए। यह उनका संकल्प और कर्तव्य की भावना का परिचायक है। - हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह — श्रीकृष्ण का उपदेश:
इस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए मार्गदर्शन दिया। वे अर्जुन के हृदय में उत्साह और शांति भरने के लिए तत्पर थे।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
यह श्लोक युद्ध के प्रारंभिक क्षण को दर्शाता है जहाँ केवल बाहरी युद्ध नहीं,
आंतरिक संघर्ष और मानसिक तैयारी भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद युद्ध के भौतिक संघर्ष से ऊपर उठकर
धर्म, नीति और मनोबल की लड़ाई की ओर इशारा करता है।
तत्व | प्रतीक अर्थ |
---|---|
कपिध्वज (श्रीकृष्ण) | परमात्मा, मार्गदर्शक, और मनोबल देने वाले |
व्यवस्थित कौरव | परिश्रमशील और संगठित विरोधी |
अर्जुन | कर्तव्यनिष्ठ योद्धा, धर्म की रक्षा के लिए तत्पर |
शस्त्रसम्पात | युद्ध की भीषणता और संकल्प का परिक्षण |
आध्यात्मिक संकेत:
- युद्ध की भयंकरता के बीच, श्रीकृष्ण का उपदेश अर्जुन को सिर्फ शस्त्रों का प्रयोग नहीं सिखाता, बल्कि
धर्म, समर्पण, और मन की स्थिरता की शिक्षा भी देता है। - यह याद दिलाता है कि जीवन के संघर्षों में बाहरी तैयारी के साथ-साथ
अंदर से भी सजग और समर्पित होना आवश्यक है।
निष्कर्ष:
यह श्लोक युद्ध के प्रचंड प्रारंभ को दर्शाता है,
जहाँ अर्जुन ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करने हेतु धनुष उठाया,
और श्रीकृष्ण ने उसे मार्गदर्शन देने के लिए तत्परता दिखाई।
यह युद्ध के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों पहलुओं का परिचायक है।
आपसे प्रश्न:
क्या आप अपने जीवन की लड़ाइयों में बाहरी संघर्ष के साथ-साथ आंतरिक शक्ति भी जुटाते हैं?
क्या आपके पास कोई “कपिध्वज” (मार्गदर्शक) है जो आपको कठिन समय में सही दिशा दिखाता हो?