मूल श्लोक:
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥23॥
शब्दार्थ:
- योत्स्यमानान् — युद्ध करने के इच्छुक योद्धा
- अवेक्षेऽहं — मैं देखना चाहता हूँ
- य एतेऽत्र समागताः — जो यहाँ एकत्र हुए हैं
- धार्तराष्ट्रस्य — धृतराष्ट्र के पुत्र (दुर्योधन) के
- दुर्बुद्धेः — दुर्बुद्धि, बुरी बुद्धि वाला
- युद्धे — युद्ध में
- प्रियचिकीर्षवः — जिनकी प्रिय करने की इच्छा है, जो प्रसन्न करना चाहते हैं
मैं उन लोगों को देखने का इच्छुक हूँ जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुश्चरित्र पुत्रों को प्रसन्न करने की इच्छा से युद्ध लड़ने के लिए एकत्रित हुए हैं।

भावार्थ:
इस श्लोक में अर्जुन अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहते हैं कि वे उन लोगों को देखना चाहते हैं जो दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए युद्ध में सम्मिलित हुए हैं। अर्जुन का यह कथन उनकी मानसिक स्थिति, कर्तव्य के प्रति उनकी दुविधा, और युद्ध के नैतिक पहलुओं पर उनके विचारों को दर्शाता है।
विस्तृत भावार्थ:
- “योत्स्यमानानवेक्षेऽहं” — युद्ध के इच्छुक योद्धाओं का निरीक्षण:
अर्जुन युद्ध में सम्मिलित होने से पहले उन योद्धाओं को देखना चाहते हैं जो उनके विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार हैं। यह उनकी युद्ध से पहले की मानसिक तैयारी और रणनीति का हिस्सा है। - “धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः” — दुर्योधन के प्रति उनकी धारणा:
अर्जुन दुर्योधन को “दुर्बुद्धि” कहते हैं, जो दर्शाता है कि वे उसे बुरी बुद्धि वाला मानते हैं। यह उनके और दुर्योधन के बीच के तनावपूर्ण संबंधों को उजागर करता है। - “प्रियचिकीर्षवः” — दुर्योधन को प्रसन्न करने की इच्छा:
अर्जुन उन योद्धाओं को देखना चाहते हैं जो दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए युद्ध में भाग ले रहे हैं। यह संकेत करता है कि वे सोच रहे हैं कि क्या ये योद्धा वास्तव में दुर्योधन के प्रति वफादार हैं या किसी दबाव में आकर युद्ध कर रहे हैं।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
यह श्लोक युद्ध के नैतिक और मानसिक पहलुओं को उजागर करता है। अर्जुन केवल बाहरी युद्ध की तैयारी नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे आंतरिक रूप से भी इस संघर्ष के नैतिक पक्षों पर विचार कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि युद्ध केवल शारीरिक संघर्ष नहीं होता, बल्कि मानसिक और नैतिक दुविधाओं का भी संग्राम होता है।
तत्व | प्रतीक अर्थ |
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योद्धाओं का निरीक्षण | आत्ममंथन और नैतिक विचार |
दुर्योधन को दुर्बुद्धि कहना | अधर्म और अनैतिकता के प्रति असहमति |
प्रियचिकीर्षवः | सत्ता के प्रति वफादारी बनाम नैतिकता की दुविधा |
आध्यात्मिक संकेत:
- आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता: अर्जुन का यह कदम हमें सिखाता है कि किसी भी बड़े निर्णय या संघर्ष से पहले आत्मनिरीक्षण और परिस्थिति का मूल्यांकन करना आवश्यक है।
- नैतिकता बनाम वफादारी: यह श्लोक दर्शाता है कि केवल वफादारी पर्याप्त नहीं है; हमें यह भी देखना चाहिए कि हम किसके प्रति वफादार हैं और क्या वह नैतिक रूप से सही है।
निष्कर्ष:
अर्जुन का यह कथन उनकी आंतरिक दुविधा, नैतिकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, और युद्ध के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि किसी भी संघर्ष में प्रवेश करने से पहले उसके नैतिक और मानसिक पहलुओं पर विचार करना कितना महत्वपूर्ण है।
आपसे प्रश्न:
क्या आप अपने जीवन के संघर्षों में नैतिकता और वफादारी के बीच संतुलन बना पाते हैं?
क्या आप किसी बड़े निर्णय से पहले आत्मनिरीक्षण और परिस्थिति का मूल्यांकन करते हैं?