मूल श्लोक:
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि॥
शब्दार्थ:
- तत्र — वहाँ
- अपश्यत् — देखा
- स्थितान् — खड़े हुए
- पार्थः — पार्थ (अर्जुन)
- पितॄन् — पितर (चाचा, ताऊ आदि)
- अथ — और
- पितामहान् — पितामह (दादा, परदादा आदि)
- आचार्यान् — आचार्य (गुरुजन)
- मातुलान् — मामा
- भ्रातृन् — भाई
- पुत्रान् — पुत्र
- पौत्रान् — पौत्र (पोते)
- सखीन् — मित्र
- श्वशुरान् — ससुर
- सुहृदः — हितैषी, सगे-संबंधी
- चैव — और भी
- सेनयोः उभयोः अपि — दोनों सेनाओं में
सरल अनुवाद:
अर्जुन ने वहाँ खड़ी दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच अपने पिता तुल्य चाचाओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, चचेरे भाइयों, पुत्रों, भतीजों, मित्रों, ससुर, और शुभचिन्तकों को भी देखा।

भावार्थ:
इस श्लोक में अर्जुन युद्धभूमि में खड़े होकर जब अपनी दृष्टि चारों ओर फैलाते हैं, तो वे यह देखकर व्यथित हो उठते हैं कि दोनों सेनाओं में उनके ही सगे-सम्बंधी, गुरु, बुजुर्ग, मित्र और शिष्य खड़े हैं। उन्हें समझ में आता है कि इस युद्ध में केवल बाहरी शत्रु नहीं, बल्कि आत्मीय लोग भी शामिल हैं — जिससे उनका मन करुणा और द्वंद्व से भर जाता है।
विस्तृत व्याख्या:
1. पार्थ की दृष्टि: युद्ध से पहले आत्मचिंतन
इस श्लोक में अर्जुन की आंतरिक दशा का वर्णन है। अभी तक वह केवल युद्ध की तैयारी में रत था, परंतु जब भगवान श्रीकृष्ण रथ को सेनाओं के बीच लाते हैं और अर्जुन चारों ओर देखते हैं, तो उन्हें एक अलग ही यथार्थ का अनुभव होता है। यह केवल युद्ध नहीं था — यह संबंधों की परीक्षा, भावनाओं की लड़ाई और आत्मा के साथ संवाद का क्षण था।
2. पितृ और पितामह — परंपरा और इतिहास के प्रतीक
अर्जुन अपने पितरों और पितामहों को देखता है — इनमें भीष्म पितामह और उनके जैसे कई वरिष्ठ योद्धा शामिल हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने अर्जुन को बचपन से देखा, सिखाया और संरक्षित किया। अब उसी अर्जुन को उन्हें लक्ष्य बनाना है। यह केवल एक युद्ध नहीं, एक पीढ़ी के विरुद्ध युद्ध था — जिसमें अर्जुन को अपने अतीत के प्रतीकों के विरुद्ध खड़ा होना था।
3. आचार्य और मातुल — ज्ञान और संबंधों का टकराव
द्रोणाचार्य जैसे गुरु, जिन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या सिखाई, आज विपक्षी सेना में हैं। वहीं शल्य जैसे मामा, जो रिश्ते में बहुत निकट थे, कौरवों की ओर से खड़े हैं। यह देख अर्जुन को लगता है कि युद्ध केवल सत्ता का नहीं, ज्ञान और भावनात्मक संबंधों का भी है। गुरु के विरुद्ध शस्त्र उठाना क्या धर्म है या अधर्म? यह प्रश्न अर्जुन के मन में उमड़ता है।
4. भ्रातृ, पुत्र, पौत्र — अपना रक्त ही शत्रु बन गया
कौरवों में दुर्योधन और अन्य भाइयों को देखकर अर्जुन का मन डगमगाने लगता है। पुत्र (जैसे अभिमन्यु), पौत्र (जैसे उत्तर) और अन्य युवा योद्धा इस युद्ध में सम्मिलित हैं। अर्जुन को लगता है कि इस युद्ध में दोनों ओर से हार ही हार है — क्योंकि जो मरेगा, वह अपना ही होगा।
5. सखी और सुहृद — मित्रता का अंत
अर्जुन उन मित्रों को भी देखता है, जिनके साथ उसने जीवन के अनेक क्षण बिताए थे — वे अब युद्ध में विरोधी बने खड़े हैं। मित्रता जब राजनीति और स्वार्थ में बंट जाती है, तब संबंधों की नींव हिलने लगती है। अर्जुन यही अनुभव करता है कि यह युद्ध जितना बाहर है, उससे कहीं अधिक अंदर है।
6. श्वशुर और ससुराल पक्ष — हर दिशा से बंधन
द्रौपदी के पिता द्रुपद और अन्य श्वशुर-तुल्य लोग भी युद्ध में हैं। अर्जुन की दुविधा और भी गहरी हो जाती है, क्योंकि अब युद्ध सिर्फ अपने कुल या कौरवों तक सीमित नहीं — यह पूरे आर्यवर्त की सामाजिक संरचना पर आघात है।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
कर्म और भावनाओं की टकराहट:
यह श्लोक जीवन के उस द्वंद्व को प्रस्तुत करता है जहाँ व्यक्ति अपने कर्तव्य (कर्म) और भावनाओं के बीच फंस जाता है। अर्जुन एक योद्धा है, और उसका धर्म युद्ध करना है। लेकिन वही युद्ध जब अपने ही प्रियजनों के विरुद्ध हो, तब धर्म और अधर्म का निर्णय आसान नहीं होता।
मोह (attachment) का उदय:
अर्जुन का मोह यहाँ प्रकट होता है — मोह नकारात्मक नहीं है, यह स्वाभाविक मानवीय भावना है। अर्जुन के लिए युद्ध केवल विजय या पराजय का नहीं, यह संबंधों के विघटन और मानवीय मूल्यों की परीक्षा का क्षण है। यह मोह ही आगे चलकर श्रीकृष्ण द्वारा भगवद्गीता के उपदेश का कारण बनता है।
वैराग्य की मांग:
इस क्षण अर्जुन को वैराग्य की आवश्यकता है — जहाँ वह कर्म तो करे, लेकिन फल की और अपने भावनात्मक बंधनों की परवाह किए बिना। यही निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत आगे गीता में प्रकट होगा।
प्रतीकात्मक अर्थ:
पात्र / तत्व | प्रतीक अर्थ |
---|---|
अर्जुन | साधक, जो कर्तव्य और मोह के बीच फंसा है |
पितर, गुरु, मित्र | वह सब जो जीवन में संबंधों और संस्कारों को दर्शाते हैं |
युद्ध भूमि | जीवन की परिस्थितियाँ, जहाँ निर्णय कठिन होते हैं |
मोह | आत्मा की परीक्षा, भावनाओं की कसौटी |
निष्कर्ष:
यह श्लोक केवल अर्जुन की दृष्टि का वर्णन नहीं है — यह एक जागरण है। यह उस क्षण को दर्शाता है जब हम अपने जीवन के निर्णयों को केवल तर्क और कर्तव्य से नहीं, भावनाओं और संबंधों के साथ भी देखने लगते हैं। यह श्लोक गीता के उपदेश का वास्तविक आरंभिक बिंदु है — जहाँ से आत्मसंवाद और श्रीकृष्ण का दिव्य ज्ञान शुरू होता है।
आपसे प्रश्न:
क्या आपने कभी ऐसे निर्णय लिए हैं जहाँ कर्तव्य और भावना के बीच संघर्ष हुआ हो?
जब अपने ही लोग विरोध में खड़े हों, तो क्या आप निष्पक्ष निर्णय ले सकते हैं?
क्या आप अर्जुन की तरह मोह में डूब जाते हैं, या श्रीकृष्ण की तरह समाधान खोजते हैं?