मूल श्लोक:
अर्जुन उवाच —
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥37॥
शब्दार्थ:
- तस्मात् — इसलिए
- न अर्हाः वयम् — हम योग्य नहीं हैं / हमें शोभा नहीं देता
- हन्तुम् — मारना
- धार्तराष्ट्रान् — धृतराष्ट्र के पुत्रों को (कौरवों को)
- स्व-बान्धवान् — अपने बंधु-बांधवों को
- स्वजनम् — अपने ही लोगों को
- हि — निश्चय ही
- कथम् — कैसे
- हत्वा — मारकर
- सुखिनः स्याम — हम सुखी हो सकते हैं
- माधव — हे माधव! (कृष्ण को संबोधित)
इसलिए अपने चचेरे भाइयों, धृतराष्ट्र के पुत्रों और मित्रों सहित अपने स्वजनों का वध करना हमारे लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। हे माधव! इस प्रकार अपने वंशजों का वध कर हम सुख की आशा कैसे कर सकते हैं?

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के भीतर उठते गहन नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व को उजागर करता है। युद्धभूमि में खड़े होकर अर्जुन केवल शत्रुओं को नहीं देखता, बल्कि वह उन्हें “स्वजन” — अपने ही — के रूप में अनुभव करता है।
1. ‘तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं…’ — युद्ध की नैतिकता पर प्रश्न:
अर्जुन कहता है कि “इसलिए हमें योग्य नहीं है कि हम उन्हें मारें।”
‘नार्हाः’ शब्द में गहरे नैतिक मूल्य निहित हैं — वह केवल बाह्य नियमों की बात नहीं कर रहा, बल्कि अपने अंतःकरण की आवाज सुन रहा है।
वह यह कह रहा है कि यदि युद्ध हमें अपने ही लोगों के वध के लिए प्रेरित करे, तो वह युद्ध केवल अन्याय का ही नहीं, मानवता का हनन भी है।
2. ‘धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्’ — विरोधियों की पहचान का परिवर्तन:
अर्जुन कौरवों को ‘धार्तराष्ट्रान्’ कहकर संबोधित करता है — धृतराष्ट्र के पुत्र, और फिर कहता है ‘स्वबान्धवान्’ — हमारे बंधु।
यह परिवर्तन महत्वपूर्ण है:
शत्रु और स्वजन एक ही व्यक्ति हो सकते हैं — यह द्वंद्व ही गीता के आरंभिक श्लोकों का आधार है।
3. ‘स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम’ — सुख की परिभाषा पर पुनर्विचार:
अर्जुन पूछता है — “क्या अपने ही स्वजनों को मारकर हम सुखी हो सकते हैं?”
यह प्रश्न केवल भावुकता नहीं, बल्कि दर्शन भी है।
अर्जुन के अनुसार, यदि विजय की कीमत अपने प्रियजनों का रक्त है, तो वह सुख नहीं, शाप है।
यहाँ सुख बाह्य संपन्नता नहीं, बल्कि आत्मिक संतोष है — और वह किसी के वध से नहीं आ सकता।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
1. कर्तव्य बनाम करुणा:
अर्जुन धर्मयुद्ध में खड़ा है, लेकिन उसका हृदय करुणा से भर जाता है।
यह श्लोक बताता है कि कर्तव्य और करुणा जब आमने-सामने होते हैं, तो मनुष्य का चित्त विचलित हो सकता है।
यह विवेक का क्षेत्र है — जहाँ उत्तर स्पष्ट नहीं होते।
2. स्वजन — आत्मीयता का विस्तार:
‘स्वजन’ का प्रयोग अर्जुन के दृष्टिकोण को दर्शाता है।
वह युद्ध में शत्रु नहीं देखता, बल्कि भाई, गुरु, चाचा, और मित्र देखता है।
यह भाव बताता है कि वैरभाव केवल दृष्टिकोण का प्रश्न है — यदि दृष्टि बदल जाए, तो विरोध भी अपनापन बन सकता है।
3. माधव — कृष्ण को संबोधित:
अर्जुन बार-बार कृष्ण को ‘माधव’ कहकर संबोधित करता है — जो ‘माया के स्वामी’ और लक्ष्मीपति हैं।
यह संकेत है कि अर्जुन अपनी भौतिक दृष्टि से परे देखने के लिए कृष्ण से मार्गदर्शन चाहता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
अर्जुन — मानव आत्मा
कौरव — हमारे भीतर के आसक्ति, लोभ, मोह
स्वजन — वे आसक्तियाँ जिनसे हम जुड़े हैं, जिनका त्याग कठिन होता है
युद्ध — आत्मसंघर्ष
इस श्लोक में अर्जुन अपने ही “स्वजनों” — यानी अपनी ही इच्छाओं, अभिलाषाओं, और पुराने रिश्तों — के विरुद्ध खड़ा है।
उन्हें छोड़ने की पीड़ा उसे विचलित कर रही है।
आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:
- कर्तव्य और मोह के बीच की खाई:
जब हमारा कर्तव्य हमें वहाँ ले जाए जहाँ हमें अपने ही प्रिय संबंधों को त्यागना पड़े — तब हम अर्जुन बन जाते हैं। - क्या हम वाकई सुख चाहते हैं, या केवल प्रियजन चाहते हैं?
अर्जुन का प्रश्न है — यदि सब कुछ जीत भी लूँ, लेकिन प्रियजन नहीं रहे, तो कैसा सुख? - स्वजन का वध — आत्मसंयम का प्रतीक:
यह केवल बाह्य हत्या नहीं, बल्कि अपने भीतर के अनाचार, मोह, और स्वार्थ का त्याग है।
युद्ध उन कमजोरियों से है जो हमारे अपने हैं — इसी कारण युद्ध कठिन है।
नैतिक और मनोवैज्ञानिक गहराई:
- यह श्लोक किसी भी निर्णय से पहले मानवीय दृष्टिकोण की महत्ता को दर्शाता है।
- अर्जुन की दुविधा हमें सिखाती है कि महान कार्यों से पहले संवेदनशीलता और विवेकपूर्ण विचार आवश्यक हैं।
आपसे प्रश्न:
क्या आपने कभी किसी निर्णय में अपने कर्तव्य और संबंध के बीच संघर्ष अनुभव किया है?
क्या केवल जीत ही सुख है, या जीत किसके साथ मिलकर हुई — यह भी मायने रखता है?
यदि धर्म की रक्षा के लिए अपने प्रियजनों से टकराना पड़े — तो क्या आप तैयार हैं?
