मूल श्लोक:
अर्जुन उवाच —
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥38॥
शब्दार्थ:
- यद्यपि — यद्यपि / चाहे
- एते — ये लोग (कौरव और उनके समर्थक)
- न पश्यन्ति — नहीं देख रहे / नहीं समझते
- लोभ-उपहत-चेतसः — जिनकी बुद्धि लोभ से भ्रष्ट हो चुकी है
- कुल-क्षय-कृतं दोषं — कुल के विनाश से उत्पन्न दोष (अधर्म, विघटन आदि)
- मित्र-द्रोहे — मित्रों के साथ विश्वासघात में
- च — और
- पातकम् — पाप / महापाप
यद्यपि लोभ से अभिभूत होने के कारण वे अपने स्वजनों के विनाश और अपने मित्रों के साथ विश्वासघात करने में कोई दोष नहीं देखते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के चिंतन की अगली कड़ी है। वह केवल अपनी ही नहीं, अब कौरवों की मानसिकता को भी विश्लेषण की दृष्टि से देखता है। यह उस संघर्ष का प्रतिबिंब है जहाँ एक ओर धर्म और विवेक है, और दूसरी ओर लोभ और अज्ञानता।
1. ‘लोभोपहतचेतसः’ — लोभ से अंधी चेतना:
यह वाक्यांश अत्यंत मार्मिक और सारगर्भित है।
जिनकी चेतना (चेतसः) लोभ (लालच, सत्ता की प्यास) से उपहत (प्रभावित/नष्ट) हो गई है।
यह केवल भौतिक लालच की बात नहीं है — यह उस मानसिक अंधत्व की बात है जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों के परिणामों को देख नहीं पाता।
कौरव सत्ता, राज्य, और सामर्थ्य के लोभ में इस स्तर पर चले गए हैं कि उन्हें धर्म और अधर्म का विवेक ही नहीं रहा।
2. ‘न पश्यन्ति’ — दृष्टिहीनता का प्रतीक:
यह शब्द केवल आंखों से न देखने की बात नहीं करता, बल्कि बुद्धि और विवेक से न समझने की बात करता है।
अर्जुन कहता है — “वे देख नहीं रहे हैं” — यानि वे अपने कर्मों का सही मूल्यांकन करने की क्षमता खो चुके हैं।
3. ‘कुलक्षयकृतं दोषं’ — परिवार और समाज के विनाश का खतरा:
‘कुलक्षय’ का अर्थ है — परिवार, वंश, परंपरा, और संस्कृति का विनाश।
अर्जुन कहता है कि यह युद्ध केवल व्यक्तियों को नहीं, पूरे कुल को समाप्त कर देगा।
और यह केवल शारीरिक विनाश नहीं — यह संस्कार, मर्यादा, और नैतिकता का अंत है।
4. ‘मित्रद्रोहे च पातकम्’ — विश्वासघात को पाप न समझना:
मित्रों से विश्वासघात (मित्रद्रोह) — केवल व्यक्ति के नहीं, मानवता के विरुद्ध अपराध है।
कौरव अपने ही संबंधियों, गुरुओं, मित्रों, और धर्म का उल्लंघन कर रहे हैं — और फिर भी उसे पाप नहीं मानते।
यह धर्मबुद्धि का पतन है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
1. चेतना का भ्रष्ट होना — आध्यात्मिक अंधकार:
जब चेतना ‘लोभ’ से घिरी हो जाती है, तब व्यक्ति अपने ही कर्मों को सही ठहराने लगता है।
यही कारण है कि अधर्म करते हुए भी कौरव स्वयं को ‘धर्मात्मा’ समझते हैं।
2. धर्म का मूल विवेक में है, न परंपरा में:
यह श्लोक बताता है कि यदि विवेक और आत्मनिरीक्षण न हो, तो व्यक्ति कितनी भी विद्या और शक्ति रखे, वह पाप की ओर चला जाता है।
धर्म केवल कर्मों से नहीं, विवेकयुक्त दृष्टिकोण से बनता है।
3. कुल और संस्कृति की रक्षा:
अर्जुन का तर्क यह है कि युद्ध केवल सत्ता के लिए नहीं होना चाहिए।
यदि यह कुलधर्म, कुलसंस्कार, और समाज को नष्ट करता है, तो उसकी वैधता ही समाप्त हो जाती है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक |
---|---|
अर्जुन | विवेक / आत्मजागृति |
कौरव | लोभ, मोह, अज्ञान |
कुल | जीवन की उच्च संस्कृति और परंपराएँ |
मित्रद्रोह | आत्मवंचना / मूल्यभ्रष्टता |
यहाँ अर्जुन केवल बाहरी युद्ध की नहीं, आत्मयुद्ध की बात कर रहा है।
- जब मनुष्य अपने ही जीवन-मूल्यों के विरुद्ध खड़ा हो जाए,
- जब लोभ विवेक को ढँक ले,
- और जब धर्म के नाम पर अधर्म किया जाए —
तो वही मित्रद्रोह और कुल-विनाश है।
आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:
- लोभ — वह जहर है जो चुपचाप चेतना को खा जाता है।
- विवेक — वह दीपक है जो लोभ और मोह के अंधकार में मार्ग दिखाता है।
- धर्मबुद्धि — केवल ग्रंथों से नहीं, अंतःकरण की शुद्धता से उत्पन्न होती है।
इस श्लोक में अर्जुन उन लोगों के लिए दुःखी है जो लोभ के कारण अंधे हो गए हैं — वह उन्हें शत्रु नहीं, भ्रमित आत्माएँ मानता है।
आपसे प्रश्न:
क्या कभी आपने ऐसे लोगों को देखा है जो स्पष्ट अधर्म को भी ‘सही’ ठहराते हैं?
क्या आपके निर्णय कभी लोभ से प्रेरित रहे हैं — और बाद में आपको पछतावा हुआ?
‘मित्रद्रोह’ केवल युद्ध में नहीं — क्या वह तब भी होता है जब हम किसी का विश्वास तोड़ते हैं?
क्या आपने अपने परिवार या समाज की परंपराओं की रक्षा के लिए कोई मूल्य का त्याग किया है?