Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 1, Sloke 39

English

मूल श्लोक:

अर्जुन उवाच —
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39॥

शब्दार्थ:

  • कथम् — क्यों / कैसे
  • न ज्ञेयम् — न जाना जाए / न समझा जाए
  • अस्माभिः — हमारे द्वारा / हम लोगों से
  • पापात् — पाप से / अधर्म से
  • अस्मात् निवर्तितुम् — इस (पाप) से हट जाना / दूर रहना
  • कुलक्षयकृतम् — कुल (परिवार/वंश) के विनाश से उत्पन्न
  • दोषम् — दोष / अधर्म / अनिष्ट
  • प्रपश्यद्भिः — स्पष्ट रूप से देख रहे लोगों के द्वारा
  • जनार्दन — हे जनार्दन! (भगवान श्रीकृष्ण को संबोधित)

तथापि हे जनार्दन! जब हमें स्पष्टतः अपने बंधु बान्धवों का वध करने में अपराध दिखाई देता है तब हम ऐसे पापमय कर्म से क्यों न दूर रहें?

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक अर्जुन की अंतर्मुखी विवेकपूर्ण सोच का प्रतिबिंब है। वह यहाँ केवल युद्ध या हिंसा की बात नहीं कर रहा, बल्कि उसके दीर्घकालिक नैतिक और सामाजिक परिणामों पर विचार कर रहा है।

1. ‘कथं न ज्ञेयम्’ — आत्मग्लानि या नैतिक बोध:

अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है:

“जब हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि यह युद्ध कुल का नाश कर देगा और समाज को अधर्म में धकेल देगा,
तो फिर क्यों न हम इस पाप से बचें?”

यह प्रश्न नहीं, बल्कि एक आत्मस्वीकृति है — एक विवेक की पुकार।

2. ‘प्रपश्यद्भिः’ — स्पष्टदर्शी बनाम अंधदर्शी:

“जो स्पष्ट रूप से देख सकते हैं…” — अर्जुन स्वयं को ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर रहा है जो परिणामों का पूर्वानुमान कर सकता है।

वह कहना चाहता है कि:

  • कौरव तो लोभ के कारण अंधे हो चुके हैं,
  • लेकिन हम (पांडव) तो धर्मबुद्धि वाले हैं,
  • तो क्या हमें भी उन्हीं की तरह पाप में डूब जाना चाहिए?

3. ‘पापादस्मान्निवर्तितुम्’ — पाप से मुक्ति की आकांक्षा:

यहाँ “निवर्तितुम्” यानी “हट जाना” एक निर्णायक शब्द है।

अर्जुन को समझ में आता है कि युद्ध में भाग लेना केवल शारीरिक नहीं, बल्कि नैतिक पाप भी है — विशेषकर जब उस युद्ध का परिणाम कुलविनाश और धर्म का पतन है।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

विवेक और नैतिक निर्णय:

यह श्लोक इस बात को दर्शाता है कि केवल ‘धर्मयुद्ध’ कहना पर्याप्त नहीं है —
सत्य को जानने वाला व्यक्ति जब अधर्म करता है, तो वह उससे भी बड़ा दोषी होता है जो अज्ञानवश पाप करता है।

धर्म और कर्तव्य के बीच संघर्ष:

यहाँ अर्जुन के भीतर कर्मयोग और धर्मबुद्धि का संघर्ष है।

  • कर्तव्य (योद्धा के रूप में युद्ध करना)
  • बनाम धर्म (संस्कार और समाज की रक्षा करना)

अर्जुन यह सोच रहा है — “अगर मेरा कर्तव्य समाज को ही नष्ट कर दे, तो क्या वह धर्म हो सकता है?”

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्वप्रतीक
अर्जुनविवेकशील आत्मा
कुलविनाशजीवनमूल्यों और परंपराओं का पतन
पापअधर्म / आत्मनिन्दा योग्य कर्म
निवृत्तिआत्मसंयम, विवेकजन्य त्याग
जनार्दनईश्वर या उच्च चेतना की पुकार

यह श्लोक केवल युद्धभूमि का संवाद नहीं है — यह हमारे आंतरिक युद्ध का चित्र है।

आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:

  • ज्ञेयम् (जानना) — केवल पुस्तक ज्ञान नहीं, अनुभवजन्य सत्य को समझना।
  • निवृत्त होना — जब कोई मार्ग पाप की ओर ले जाए, तो वहाँ रुक जाना ही सच्चा धर्म है।
  • धर्म का संकल्प — बाह्य कर्तव्य से पहले आत्मा की पुकार सुनना ही वास्तविक धर्म है।

अर्जुन कहता है — “जब हमें साफ दिख रहा है कि यह मार्ग विनाश की ओर है,
तो क्या विवेक यह नहीं कहता कि हम पीछे हट जाएँ?”

नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण:

  • कुलविनाश — समाज की संरचनाओं का टूटना:
    धर्म, विवाह, परंपरा, गुरु-शिष्य, परिवार — ये सब युद्ध में समाप्त हो जाएंगे।
  • पाप की चेतना — जो लोग देख सकते हैं और फिर भी चुप रहते हैं — उनका दोष अधिक है।

अर्जुन यह नहीं कह रहा कि युद्ध गलत है —
वह कह रहा है कि इस युद्ध का कारण और परिणाम अधार्मिक है।

आपसे प्रश्न:

क्या आपने कभी कोई ऐसा कार्य किया जिसे करने से पहले ही आप जानते थे कि यह गलत है?
जब समाज का बहुमत एक दिशा में जा रहा हो — क्या आप अपने विवेक की सुनते हैं?
क्या आप वह साहस रखते हैं जो अर्जुन में है — सही जानकर पाप से निवृत्त होने का?
‘स्पष्ट दृष्टि’ के बावजूद क्या कभी आपने किसी दबाव में निर्णय लिया?

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