मूल श्लोक : 40
अर्जुन उवाच —
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40॥
शब्दार्थ:
- कुलक्षये — कुल (वंश/परिवार) के नाश होने पर
- प्रणश्यन्ति — नष्ट हो जाते हैं
- कुलधर्माः — कुल के पारंपरिक धार्मिक नियम और कर्तव्य
- सनातनाः — शाश्वत / अनादि परंपरा से चले आ रहे
- धर्मे नष्टे — जब धर्म नष्ट हो जाता है
- कुलम् कृत्स्नम् — सम्पूर्ण कुल / पूरा परिवार
- अधर्मः — अधार्मिकता / पापाचरण
- अभिभवति — आ घेरता है / हावी हो जाता है
- उत — निश्चय ही / वास्तव में
जब कुल का नाश हो जाता है तब इसकी कुल परम्पराएं भी नष्ट हो जाती हैं और कुल के शेष बचे लोग अधर्म में प्रवृत्त होने लगते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन की चिंतनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी की गहराई को दर्शाता है। युद्ध केवल बाह्य विनाश नहीं लाता — वह धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक संरचना को भी तोड़ देता है। अर्जुन इसी भय को व्यक्त कर रहा है।
1. ‘कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः’ — धर्म-संरचना का अंत:
अर्जुन स्पष्ट कहता है कि जब कुल (परिवार, वंश, समाज की इकाई) नष्ट होता है,
तो केवल व्यक्ति नहीं मरते — उनकी पीढ़ियों से चली आ रही परंपराएँ भी मर जाती हैं।
कुलधर्म — जैसे:
- श्राद्ध, यज्ञ, विवाह-संस्कार
- बड़ों का सम्मान, कन्याओं की रक्षा
- स्त्रियों का मर्यादा में रहना
- पितरों का तर्पण
इन सभी का पालन करने वाला संघटित कुल जब टूटता है, तो ये मूल्य भी मिट जाते हैं।
2. ‘सनातनाः’ — धर्म केवल कर्मकांड नहीं:
यहाँ अर्जुन ‘सनातन’ शब्द का प्रयोग करता है —
जिसका अर्थ है: शाश्वत, जो केवल परंपरा नहीं, धर्म की आत्मा है।
वह धर्म जो केवल रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं, बल्कि आचरण, मर्यादा और समाज व्यवस्था की आत्मा है।
3. ‘धर्मे नष्टे… अधर्मोऽभिभवति’ — धर्म-अधर्म का द्वंद्व:
जब कुलधर्म समाप्त हो जाता है — तब अधर्म हावी हो जाता है।
- पवित्रता की जगह दुराचार
- सच्चाई की जगह मिथ्या
- मर्यादा की जगह विवेकहीनता
प्रविष्ट हो जाती है।
जैसे अगर दीया बुझ जाए, तो अंधकार स्वाभाविक रूप से आ जाता है —
वैसे ही धर्म का नाश होते ही अधर्म का स्वाभाविक आगमन होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
कुलधर्म = सामाजिक संरचना का धर्म:
कुल या परिवार केवल खून के रिश्तों का नाम नहीं,
बल्कि वह संस्था है जो धर्म, नीति, प्रेम और परंपरा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती है।
- अर्जुन इस श्लोक में बताता है कि व्यक्ति से ज़्यादा, परिवार का पतन खतरनाक है,
क्योंकि एक व्यक्ति धर्म छोड़ दे तो वह व्यक्तिगत है,
लेकिन जब कुल का धर्म मिटे — तो पूरा समाज अराजक हो जाता है।
धर्म की सामाजिक भूमिका:
गीता में यहाँ धर्म को केवल मोक्ष या पूजा तक सीमित नहीं किया गया —
यह व्यवहार, उत्तरदायित्व, समाज-निर्माण और परंपरा-संरक्षण का माध्यम है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक |
---|---|
कुलक्षय | जीवन-मूल्यों का पतन |
कुलधर्म | संस्कृति, परंपरा, आचरण के नियम |
अधर्म का प्रभुत्व | असंतुलन, भ्रष्टाचार, आत्मविस्मृति |
सनातन धर्म | शाश्वत सत्य और सामाजिक उत्तरदायित्व |
अर्जुन की चिंता | विवेक की चेतना, धर्म-संरक्षण की पुकार |
आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:
- जब व्यक्ति अपने परिवार, समाज और परंपरा के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा करता है,
तो वह अधर्म को आमंत्रित करता है। - धर्म के नष्ट होने का अर्थ केवल धार्मिक क्रियाओं का अंत नहीं —
यह मनुष्य की आत्मा की दिशा का खो जाना है।
अर्जुन कहता है — “युद्ध केवल रक्त का नहीं है, यह संस्कृति की हत्या है।”
नैतिक और सामाजिक सन्देश:
- परिवारों की अखंडता समाज की नींव है।
जब परिवार टूटते हैं, तो संस्कार और मर्यादा भी समाप्त हो जाते हैं। - धर्म का पतन अधर्म को स्वतः आमंत्रित करता है।
कोई रिक्त स्थान नहीं होता — जहाँ धर्म नहीं होता, वहाँ अधर्म प्रवेश करता है। - सामूहिक जिम्मेदारी:
अर्जुन यह नहीं कहता कि युद्ध में सिर्फ मैं या तुम मरेंगे —
वह देखता है कि समाज की आत्मा नष्ट हो जाएगी।
आपसे प्रश्न:
क्या आप अपने ‘कुलधर्म’ — यानी अपने परिवार, समाज और परंपराओं के प्रति उत्तरदायी हैं?
क्या आप अपने जीवन में ‘धर्म’ को केवल पूजा तक सीमित मानते हैं या व्यवहार में लाते हैं?
जब आपके जीवन में निर्णय ऐसे हों जो व्यक्तिगत लाभ दे पर सामूहिक हानि करें — तो क्या आप रुके हैं?
क्या आपके विचार, वाणी और कर्म अधर्म को बढ़ावा दे रहे हैं या धर्म को?