मूल श्लोक : 41
अर्जुन उवाच —
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥41॥
शब्दार्थ:
- अधर्माभिभवात् — अधर्म के प्रबल होने से
- कृष्ण — हे कृष्ण!
- प्रदुष्यन्ति — भ्रष्ट हो जाती हैं, दूषित हो जाती हैं
- कुलस्त्रियः — कुल की स्त्रियाँ
- स्त्रीषु दुष्टासु — स्त्रियों के दूषित हो जाने पर
- वार्ष्णेय — हे वार्ष्णेय! (कृष्ण, जो वृष्णि वंश में उत्पन्न हुए)
- जायते — उत्पन्न होता है
- वर्णसङ्करः — वर्णसंकर, अर्थात वर्ण-व्यवस्था का मिश्रण/विघटन
अधर्म की प्रबलता के कारण हे कृष्ण! कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रियों के दुराचारिणी होने से हे वृष्णिवंशी! अवांछित संतानें जन्म लेती हैं।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन की उस सामाजिक चिंता को प्रकट करता है जो युद्ध के दुष्परिणामों से संबंधित है।
वह युद्ध के कारण कुल की स्त्रियों के पतन और उसके परिणामस्वरूप वर्णव्यवस्था के विघटन की संभावना व्यक्त करता है।
1. ‘अधर्माभिभवात्’ — जब अधर्म का बोलबाला होता है:
- युद्ध में धर्म की सीमाएं टूटती हैं।
- परिवार नष्ट होते हैं, संस्कारों की नींव हिल जाती है।
- जब धर्म नहीं होता, तब शील, मर्यादा और संरक्षण जैसे मूल्य समाप्त हो जाते हैं।
अर्जुन यहाँ ‘धर्म’ को केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, संरक्षण और मर्यादा की व्यवस्था मानता है।
2. ‘प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः’ — स्त्रियों का पतन:
- जब कुल नष्ट होते हैं, तो स्त्रियाँ असुरक्षित हो जाती हैं।
- उनके आचार, शील और स्थिति पर सामाजिक अव्यवस्था का दुष्प्रभाव पड़ता है।
- अर्जुन मानता है कि स्त्रियों का पतन केवल उनका व्यक्तिगत पतन नहीं, बल्कि संपूर्ण सामाजिक गिरावट की शुरुआत है।
यहाँ स्त्री की शुद्धता को केवल शारीरिक न मानें — यह संस्कार, शील और संरक्षण का प्रतिनिधित्व करती है।
3. ‘वर्णसङ्करः’ — वर्णव्यवस्था का संकट:
- वर्णसंकरी संतान वह होती है जो बिना उचित विवाह और वर्ण-संयोजन के उत्पन्न होती है।
- यह श्लोक उस युग की सामाजिक चिंता को दर्शाता है जहाँ वर्ण व्यवस्था को स्थिरता और धर्म-संरक्षण का आधार माना गया था।
अर्जुन का आशय यह है कि जब स्त्रियों की रक्षा नहीं होती, तब अनियंत्रित संबंधों से जन्म लेने वाली संतानों से सामाजिक व्यवस्था का संतुलन बिगड़ता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
स्त्रियाँ = संस्कृति की वाहक:
- भारतीय दर्शन में स्त्रियाँ केवल ‘व्यक्ति’ नहीं हैं, वे संस्कृति, मर्यादा, और भावनात्मक व्यवस्था की वाहक मानी गई हैं।
- उनका पतन एक पूरी पीढ़ी की गिरावट का प्रतीक है।
वर्णसंकर = सामाजिक और आध्यात्मिक असंतुलन:
- अर्जुन का संकेत है कि अनियंत्रित सामाजिक संबंध समाज को नैतिक और मानसिक रूप से कमजोर बना देते हैं।
- वर्णसंकरता का भय, यद्यपि आधुनिक दृष्टि से भिन्न रूप में देखा जाता है, उस युग की सामाजिक संरचना के आधार को टूटता दिखाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक |
---|---|
अधर्म का प्रभुत्व | धर्महीनता, व्यवस्था का विघटन |
कुलस्त्रियों का पतन | संस्कारों, शील, सुरक्षा की हानि |
वर्णसङ्कर | समाज में अनुशासन और उत्तरदायित्व का अभाव |
अर्जुन की चिंता | धर्म और समाज की निरंतरता के प्रति जागरूकता |
आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:
- जब ‘धर्म’ पीछे हटता है, तब वासनाएं, लालच और हिंसा समाज पर हावी हो जाती हैं।
- स्त्रियों की मर्यादा टूटना केवल व्यक्तिगत या स्त्री विरोधी बात नहीं — यह मनुष्य की आत्मा की गिरावट का सूचक है।
- अर्जुन यह नहीं कह रहा कि स्त्रियाँ कमजोर हैं — वह कह रहा है कि समाज की रीढ़ को असुरक्षित कर देना समाज का विनाश है।
नैतिक एवं सामाजिक सन्देश:
- धर्म की रक्षा से ही समाज सुरक्षित रहता है।
यदि धर्म हटता है, तो सामाजिक विघटन शुरू होता है। - स्त्रियों का सम्मान समाज की चेतना का दर्पण है।
यदि स्त्रियाँ असुरक्षित हैं, तो समाज भीतर से खोखला है। - वर्णसंकरता का भय, सामाजिक उत्तरदायित्व का संकेत है।
यह विचार आधुनिक मूल्य में रूपांतरित होकर हमें बताता है कि अनुशासनहीनता सामाजिक संकट को जन्म देती है।
आपसे प्रश्न:
क्या आज भी समाज धर्म को केवल कर्मकांड समझकर उसकी वास्तविक रक्षा से विमुख हो रहा है?
क्या आज की स्त्रियाँ — जो समाज की रीढ़ हैं — सुरक्षित, सम्मानित और समर्थ हैं?
आधुनिक युग में ‘वर्णसंकरता’ का रूप क्या हो सकता है? क्या यह सामाजिक कर्तव्यों से विमुख पीढ़ी नहीं है?
क्या अधर्म आज भी सिर्फ युद्ध के रूप में आता है, या वह मूल्यों के क्षरण के रूप में आपके जीवन में प्रवेश कर चुका है?