मूल श्लोक : 43
दोषैरेतैः कुलजानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥43॥
शब्दार्थ:
- दोषैः — दोषों से, त्रुटियों से
- एतैः — इन
- कुलजानाम् — कुल में जन्मे लोगों के
- वर्णसङ्करकारकैः — वर्ण-संकर उत्पन्न करने वाले
- उत्साद्यन्ते — नष्ट हो जाते हैं, मिट जाते हैं
- जातिधर्माः — जाति विशेष के धर्म (नैतिक, सामाजिक कर्तव्य)
- कुलधर्माः — परिवार/कुल के परंपरागत धर्म
- च — और
- शाश्वताः — शाश्वत, स्थायी, सनातन
अपने दुष्कर्मों से कुल परम्परा का विनाश करने वाले दुराचारियों के कारण समाज में अवांछित सन्तानों की वृद्धि होती है और विविध प्रकार की सामुदायिक और कुटुंब तथा पारिवारिक कल्याण की गतिविधियों का भी विनाश हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में अर्जुन, युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले वर्णसंकर (अनुचित मिश्रण) के सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक दुष्परिणामों को उजागर करते हैं।
1. ‘दोषैः एतैः वर्णसङ्करकारकैः’ — कौन-से दोष?
- युद्ध → पुरुषों की मृत्यु → स्त्रियाँ असुरक्षित → वर्ण-संकर संतानों का जन्म।
- ऐसे वर्ण-संकर न धर्म जानते हैं, न संस्कृति, जिससे समाज में कर्तव्य की स्पष्टता खो जाती है।
ये दोष केवल सामाजिक नहीं, आध्यात्मिक विकृति के सूचक हैं — जहां मनुष्य अपने धर्म, जातीय उद्देश्य और कुल परंपरा से विच्युत हो जाता है।
2. ‘उत्साद्यन्ते जातिधर्माः’ — जाति का धर्म क्या है?
- यहाँ जाति केवल सामाजिक वर्ग नहीं है — यह कर्तव्य की धारणा है:
- ब्राह्मण: ज्ञान और तप
- क्षत्रिय: रक्षा और शौर्य
- वैश्य: व्यापार और दान
- शूद्र: सेवा और सहकार
जब वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, तब कोई वर्ग अपना स्वधर्म नहीं जानता, जिससे पूरी व्यवस्था अराजक हो जाती है।
3. ‘कुलधर्माश्च शाश्वताः’ — कुल की सनातन परंपराएं:
- प्रत्येक कुल में विशिष्ट धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक नियम होते हैं।
- वे केवल रीति नहीं, मूल्य प्रणाली हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हैं।
जब कुलधर्म नष्ट होता है, तो केवल परिवार ही नहीं, समाज और संस्कृति की नींव हिल जाती है।
दर्शनशास्त्रीय व्याख्या:
‘धर्म’ का विनाश = चेतना का क्षय:
- ‘जातिधर्म’ और ‘कुलधर्म’ केवल बाहरी व्यवहार नहीं हैं, बल्कि मनुष्य की अंत:प्रवृत्तियाँ हैं।
- जब समाज स्वधर्म से विचलित होता है, तो कर्तव्य की जगह इच्छाएं, तपस्या की जगह तृष्णा ले लेती है।
वर्ण-संकर = आत्मसंदेह और दिशाहीनता का प्रतीक:
- एक ऐसी स्थिति जहां व्यक्ति न ब्राह्मण की तरह अध्ययन करता है, न क्षत्रिय की तरह रक्षा करता है — और न ही किसी वर्ग का धर्म निभाता है।
- यह मानसिक संकरता, निर्णयहीनता और उद्देश्यहीनता का रूप है।
‘शाश्वत’ धर्मों की रक्षा क्यों आवश्यक है?
- ‘शाश्वत’ यानी जो समय से परे हैं — केवल वर्तमान नहीं, भविष्य की पीढ़ियों की ऊर्जा भी उन्हीं से पोषित होती है।
- यदि उन्हें मिटा दिया जाए, तो आगे की पीढ़ियाँ मूलविहीन वृक्ष जैसी हो जाती हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक |
---|---|
वर्णसङ्कर | आंतरिक और सामाजिक दिशाहीनता |
जातिधर्म | आत्म-कर्तव्य, व्यक्तिगत स्वधर्म |
कुलधर्म | वंशानुक्रमिक उत्तरदायित्व, परिवार की परंपरा |
शाश्वत | सनातन मूल्यों की स्थिरता |
उत्साद | मूलभूत विनाश, चेतना का अवसान |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- कर्तव्य से च्युत समाज — जब लोग अपने उत्तरदायित्वों से दूर हो जाते हैं, तो समाज की नींव हिलने लगती है।
- परंपराओं का लोप — यदि प्रत्येक पीढ़ी अपने पूर्वजों के धर्म को न निभाए, तो संस्कृति कुछ ही समय में लुप्त हो सकती है।
- अर्जुन का भाव — युद्ध केवल शत्रु से नहीं, धर्म और अधर्म के बीच है; यदि अधर्म के कारण धर्म ही नष्ट हो जाए, तो विजय भी व्यर्थ है।
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या आज हम अपनी जाति या पेशे का धर्म निभा रहे हैं?
क्या हम अपने कार्य और समाज के बीच संतुलन बना पा रहे हैं?
क्या हमारी पीढ़ी ‘शाश्वत कुलधर्मों’ को समझ रही है, या केवल आधुनिकता में रीतियों का मजाक बना रही है?
क्या हमारी संतति के पास वह नैतिक शिक्षा है जिससे वह कर्तव्य और अधिकार के बीच अंतर समझ सके?
क्या ‘वर्णसङ्कर’ की तरह हमारी सोच भी भ्रमित और मिश्रित नहीं हो गई है, जहाँ धर्म, भोग और दायित्व की सीमाएँ धुंधली हो चुकी हैं?