मूल श्लोक : 44
उत्सन्नकुलधार्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44॥
शब्दार्थ:
- उत्सन्न — नष्ट हुए, लुप्त हो चुके
- कुलधार्माणाम् — कुल के धर्मों के (पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के)
- मनुष्याणाम् — मनुष्यों के
- जनार्दन — हे जनार्दन! (सबका पालन करने वाले श्रीकृष्ण)
- नरके — नरक में
- अनियतं — अनिश्चित काल तक, सीमाहीन समय तक
- वासः — निवास, रहना
- भवति — होता है
- इति — ऐसा
- अनुशुश्रुम — हमने सुना है, श्रुति परंपरा से जाना है
हे जनार्दन! मैंने गुरुजनों से सुना है कि जो लोग कुल परंपराओं का विनाश करते हैं, वे अनिश्चितकाल के लिए नरक में डाल दिए जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
अर्जुन यहाँ श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि यदि हम युद्ध करके कुलों के धर्मों को नष्ट कर देते हैं, तो उसका अंतिम परिणाम केवल सामाजिक अव्यवस्था नहीं बल्कि आध्यात्मिक अधोपतन होगा।
1. ‘उत्सन्न कुलधर्म’ — केवल परंपरा नहीं, मूल्य प्रणाली:
- कुलधर्म का उत्सादन = वंशजों के नैतिक पतन का आरंभ।
- जब परिवार का धर्म, संस्कार, और संयम नष्ट होता है, तो मानव जीवन दिशाहीन और अनर्गल हो जाता है।
2. ‘नरके अनियतं वासः’ — केवल मृत्यु के बाद नहीं, इस जीवन का भी नरक:
- अर्जुन संकेत करते हैं कि यह नरक केवल मृत्यु के बाद का स्थान नहीं है।
- यह एक मानसिक, नैतिक और आत्मिक नरक भी हो सकता है — जहाँ आत्मा दोष, अपराधबोध, और अधर्म के बोझ से सदा पीड़ित रहती है।
3. ‘अनुशुश्रुम’ — श्रुति परंपरा का आग्रह:
- यह श्लोक दिखाता है कि अर्जुन केवल तर्क नहीं कर रहे, बल्कि शास्त्रसम्मत ज्ञान के आधार पर बोल रहे हैं।
- ‘अनुशुश्रुम’ का प्रयोग यह संकेत देता है कि अर्जुन को वैदिक ज्ञान में विश्वास है और वे धर्मशास्त्रों से सीखे हुए सिद्धांतों पर दृढ़ हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
कुलधर्म का ह्रास = आत्मा की चेतना का पतन:
- कुलधर्मों का संरक्षण आत्मा को धर्म में स्थिर रखता है।
- जब ये धर्म टूटते हैं, तो अधर्म और अविद्या आत्मा पर छा जाते हैं — जो नरक रूप है।
‘नरक’ — अस्तित्व की गिरावट का प्रतीक:
- यह केवल अग्निकुंड या यातना का स्थान नहीं है।
- यह है – कर्तव्यभ्रष्ट जीवन, जो स्वयं को व अपने पूर्वजों को कलंकित करता है।
जनार्दन का उल्लेख:
- अर्जुन ‘श्रीकृष्ण’ को जनार्दन कहकर पुकारते हैं — जो जनों का पालन करते हैं।
- यह एक विनम्र प्रार्थना भी है, जिससे वे श्रीकृष्ण की करुणा और विवेक को जाग्रत करना चाहते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्व | प्रतीक |
---|---|
उत्सन्न कुलधर्म | टूटती हुई सांस्कृतिक विरासत, मूल्यविहीनता |
नरक | मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पतन |
अनियत वास | अंतहीन पीड़ा और चेतना का बंधन |
अनुशुश्रुम | शास्त्रसम्मत चेतावनी, पारंपरिक सत्य |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- कर्तव्यहीनता का परिणाम केवल स्वयं तक सीमित नहीं होता — यह पूरे वंश और समाज को प्रभावित करता है।
- धर्महीन समाज नरक समान होता है — भले ही वह बाह्य रूप से उन्नत दिखे, भीतर से वह खोखला और पीड़ित होता है।
- धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का अपमान — केवल रीति नहीं टूटती, व्यक्ति का मन और समाज का ताना-बाना बिखर जाता है।
- धर्म केवल पूजा नहीं, जिम्मेदारी है — अगर उसे निभाया न जाए, तो स्वयं का ही पतन सुनिश्चित है।
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या आज हम भी ‘कुलधर्म’ जैसे पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों की रक्षा कर पा रहे हैं?
क्या आधुनिक जीवन की भागदौड़ में हमने उस मार्ग को नहीं खो दिया है जो हमें नरक के बजाय मोक्ष की ओर ले जाता?
क्या हम भी आज “उत्सन्नकुलधर्म” के युग में जी रहे हैं — जहाँ कर्म का अर्थ केवल लाभ रह गया है?
क्या हमने श्रुति परंपरा से जो ‘अनुशुश्रुम’ — वह सत्य ज्ञान — उसे त्याग तो नहीं दिया है?
निष्कर्ष:
यह श्लोक गीता के सामाजिक और आध्यात्मिक चिंतन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है।
अर्जुन युद्ध के कारण उत्पन्न होने वाले दीर्घकालीन दुष्परिणामों को स्पष्ट करते हैं — जिनका प्रभाव न केवल युद्धरत योद्धाओं पर, बल्कि समस्त समाज, वंश और भविष्य की चेतना पर भी पड़ता है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि –
धर्म केवल व्यक्तिगत आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व भी है।