मूल श्लोक : 46
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥
शब्दार्थ:
- यदि — यदि, मान लो कि
- माम् — मुझे
- अप्रतीकारम् — बिना प्रतिकार करने वाला, जो कोई विरोध न करे
- अशस्त्रं — बिना शस्त्र के, निरस्त्र
- शस्त्रपाणयः — हाथ में शस्त्र लिए हुए, हथियारों से सज्जित
- धार्तराष्ट्राः — धृतराष्ट्र के पुत्र (कौरव)
- रणे — युद्ध में, रणभूमि में
- हन्युः — मार डालें, वध करें
- तत् — वह
- मे — मेरे लिए
- क्षेमतरम् — अधिक कल्याणकारी, अधिक हितकारी
- भवेत् — होगा
यदि धृतराष्ट्र के पुत्र रणभूमि में हथियारों से लैस होकर, मुझे बिना प्रतिरोध किए और निहत्थे अवस्था में मार डालें, तो भी वही मेरे लिए अधिक कल्याणकारी होगा।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के आंतरिक द्वंद्व का अंतिम और चरम बिंदु है। युद्ध प्रारंभ होने से पहले अर्जुन इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि —
‘धर्म के नाम पर भी यदि मुझे अपने ही स्वजनों को मारना पड़े, तो मैं उस युद्ध को नहीं चाहता।’
बल्कि वे निहत्थे रहकर, बिना कोई प्रतिरोध किए मर जाना ज्यादा कल्याणकारी मानते हैं।
1. “अप्रतीकारम् अशस्त्रं” — संपूर्ण अहिंसा की अभिव्यक्ति:
- अर्जुन यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे अब युद्ध नहीं करना चाहते।
- न केवल वे हथियार डालना चाहते हैं, बल्कि किसी भी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं करना चाहते — पूर्ण समर्पण की भावना।
2. “शस्त्रपाणयः धार्तराष्ट्राः” — अधर्म और हिंसा की प्रतिनिधि शक्ति:
- कौरवों का उल्लेख ‘शस्त्रपाणयः’ के रूप में यह दर्शाता है कि वे युद्ध की पूरी तैयारी में हैं।
- अर्जुन उन्हें अधर्म का पक्ष मानते हुए कहते हैं कि अगर वे मुझे निहत्था देखकर भी मार डालें, तो भी मैं उनका विरोध नहीं करूंगा।
3. “तन्मे क्षेमतरं भवेत्” — जीवन की रक्षा नहीं, आत्मा की रक्षा:
- अर्जुन को अब अपने शरीर की रक्षा की चिंता नहीं है।
- उनके लिए ‘क्षेम’ का अर्थ है — आत्मिक कल्याण, नैतिक शुद्धता, और धर्म की रक्षा।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
अहिंसा और क्षमा की चरम सीमा:
- अर्जुन की यह सोच किसी सामान्य मनुष्य की नहीं, एक जाग्रत आत्मा की है — जो समझ चुकी है कि अधर्म के विरुद्ध भी हिंसा यदि अपने स्वजनों के प्रति हो, तो वह धर्म नहीं रह जाती।
कर्तव्य से विमुखता या करुणा की पराकाष्ठा?
- यह प्रश्न उत्पन्न होता है: क्या अर्जुन अपने कर्तव्य से भाग रहे हैं या करुणा की सर्वोच्च अवस्था में पहुँच गए हैं?
- गीता आगे इसका उत्तर देती है — पर इस बिंदु पर अर्जुन का यह विचार गहन नैतिकता की प्रतीक है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
अप्रतीकारम् | विरोध का त्याग, निष्क्रियता, अहिंसा की चरम सीमा |
अशस्त्रं | संपूर्ण आत्मसमर्पण, निष्कामता, भयविहीनता |
शस्त्रपाणयः | हिंसा, शक्ति का दुरुपयोग, अधर्म की आक्रामकता |
क्षेमतरम् | आत्मिक शांति, नैतिक संतोष, दीर्घकालिक कल्याण |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- कभी-कभी जीवन में परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ आत्मा को हिंसा और कर्तव्य के बीच चयन करना पड़ता है।
- धर्म हमेशा शस्त्र उठाना नहीं सिखाता — कभी-कभी धर्म में निहत्थे मर जाना भी अधिक कल्याणकारी होता है।
- अर्जुन का यह भाव बताता है कि अहंकार, क्रोध और लोभ के बिना जीने की इच्छा ही सच्चा क्षेम है।
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या हम भी कभी ऐसी स्थिति में आते हैं जहाँ प्रतिकार करने के बजाय मौन रहना ही अधिक कल्याणकारी होता है?
क्या हमारे जीवन में ‘क्षेम’ का अर्थ केवल भौतिक सुरक्षा है, या आत्मा की शांति भी?
क्या हम नैतिक निर्णयों में अपने अहं को मार सकते हैं — जैसे अर्जुन निहत्था होना स्वीकार करते हैं?
क्या करुणा और धर्म के बीच यदि द्वंद्व हो, तो क्या हम सही मार्ग चुन पाते हैं?
निष्कर्ष:
यह श्लोक गीता के पहले अध्याय का अंतिम और अत्यंत संवेदनशील बिंदु है।
अर्जुन युद्धभूमि में केवल एक योद्धा नहीं, एक विचारशील आत्मा के रूप में खड़े हैं — जो यह निर्णय ले चुके हैं कि यदि धर्म की रक्षा का मूल्य स्वजन की हत्या है, तो वह धर्म उन्हें स्वीकार नहीं।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि —
“शांति केवल शस्त्र से नहीं, बल्कि आत्मा के सत्य निर्णय से आती है।”