Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 1, Sloke 47

English

मूल श्लोक : 47

सञ्जय उवाच।
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

शब्दार्थ:

  • सञ्जय उवाच — संजय ने कहा
  • एवम् — इस प्रकार, ऐसा कहकर
  • उक्त्वा — कहकर, बोलने के बाद
  • अर्जुनः — अर्जुन ने
  • सङ्ख्ये — युद्धभूमि में, रणक्षेत्र में
  • रथ-उपस्थे — रथ के भीतर, रथ की सीट पर
  • उपाविशत् — बैठ गए, धैर्यहीन होकर निःशक्ति भाव से
  • विसृज्य — त्याग कर, छोड़कर
  • सशरं चापं — बाण सहित धनुष को
  • शोक-संविग्न-मानसः — शोक से विक्षिप्त मन वाला, गहरे दुःख से व्याकुल चित्त वाला

संजय ने कहा — इस प्रकार कहकर अर्जुन रणभूमि में रथ के भीतर बैठ गए, उन्होंने अपने बाणों सहित धनुष को त्याग दिया, और उनका मन शोक से अत्यंत विचलित हो गया |

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक अध्याय 1 का अंतिम श्लोक है और यह उस भीतरी टूटन को दर्शाता है जिससे अर्जुन का हृदय और आत्मा गुज़र रही है।

1. “विसृज्य सशरं चापं” — आत्मसमर्पण या मोह का परिणाम?

  • अर्जुन ने युद्ध का मुख्य प्रतीक — धनुष और बाण — त्याग दिया।
  • यह कर्म के क्षेत्र में निष्क्रियता और मानसिक पराजय की अवस्था है।
  • उन्होंने युद्ध नहीं छोड़ा — बल्कि कर्तव्य को क्षणिक रूप से अस्वीकार किया।

2. “शोकसंविग्नमानसः” — शोक की पराकाष्ठा:

  • अर्जुन का चित्त शोक से अभिभूत है।
  • यह शोक न केवल उनके परिजनों की चिंता है, बल्कि एक आध्यात्मिक व्याकुलता भी है:
    • क्या मैं अपने कर्तव्यों को निभा रहा हूँ?
    • क्या धर्म केवल युद्ध करना है?
    • क्या रिश्तों के मूल्य धर्म से ऊपर हैं?

3. “रथोपस्थ उपाविशत्” — आंतरिक विघटन की शारीरिक अभिव्यक्ति:

  • युद्ध में खड़ा योद्धा अचानक बैठ जाता है — यह केवल शरीर का नहीं, आत्मा का झुकाव है।
  • अर्जुन का बैठ जाना = रणभूमि में आत्मबल का पतन।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

आध्यात्मिक असंतुलन की प्रतीकात्मकता:

  • यह स्थिति ‘विवेक और मोह के बीच संघर्ष’ की चरम सीमा है।
  • अर्जुन का शोक केवल भावनात्मक नहीं, गूढ़ आत्मिक उलझनों से उपजा है।

शोक — अध्यात्म में बाधा या विकास का पहला कदम?

  • गीता के इस मोड़ पर शोक कोई दोष नहीं, बल्कि ज्ञान की ओर पहला द्वार है।
  • जिस क्षण आत्मा प्रश्न करती है, वहीं से आध्यात्मिक जागृति प्रारंभ होती है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्त्वप्रतीक
सशरं चापंकर्तव्य, शक्ति, कर्म की तैयारी
विसृज्यकर्म से पलायन, मोहवश आत्मसमर्पण
शोकसंविग्नमानसःभावनात्मक उलझन, विवेक और मोह का द्वंद्व
रथोपस्थ उपाविशत्आत्मबल की गिरावट, चिंतनशीलता की ओर झुकाव
संजय उवाचतटस्थ दृष्टा की वाणी, जाग्रत चेतना का पर्यवेक्षक

नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:

  • जब जीवन हमें कठिन विकल्पों के बीच डालता है, तो केवल बाह्य बल पर्याप्त नहीं होता — आंतरिक स्थिरता की आवश्यकता होती है।
  • अर्जुन का यह क्षण हम सभी के लिए प्रतीक है — जब हम अपने कर्तव्यों और भावनाओं के बीच फँस जाते हैं।
  • यह श्लोक दिखाता है कि महानता केवल जीत में नहीं, आत्म-निरीक्षण और आत्म-विकास की यात्रा में भी होती है।

आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:

क्या हमारे जीवन में भी कोई क्षण आता है जब हम ‘धनुष’ त्याग देना चाहते हैं?
क्या शोक और मोह से घिरे समय में हम भी आत्मनिरीक्षण की ओर मुड़ते हैं?
क्या हम अपने “संजय” को सुन पाते हैं — जो भीतर से हमें स्थिति का विवेकपूर्ण चित्र दिखाता है?
क्या जीवन के रण में हम केवल योद्धा हैं, या एक साधक भी जो सत्य की खोज कर रहा है?

निष्कर्ष:

यह श्लोक केवल अर्जुन की हार नहीं दर्शाता — यह मानव आत्मा की सबसे प्रामाणिक स्थिति है — जब वह गहराई से सोचती है, और स्वयं को टटोलती है।

यह श्लोक हमें सिखाता है कि —
“अंधकार से पहले एक क्षण ऐसा आता है जब आत्मा थक जाती है — और वहीं से प्रकाश की यात्रा प्रारंभ होती है।”

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