मूल श्लोक:
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥8॥
शब्दार्थ:
- भवान् — आप (द्रोणाचार्य के लिए सम्मानपूर्वक संबोधन)
- भीष्मः — भीष्म पितामह (कौरवों के महान सेनापति)
- कर्णः — कर्ण (दुर्योधन का परम मित्र और अत्यंत वीर धनुर्धर)
- कृपः — कृपाचार्य (द्रोणाचार्य के बहनोई, कुशल युद्धाचार्य)
- समिति-ञ्जयः — युद्ध में विजयी, संग्राम में प्रवीण
- अश्वत्थामा — अश्वत्थामा (द्रोणाचार्य का पुत्र, अमर और बलशाली)
- विकर्णः — विकर्ण (धृतराष्ट्र का पुत्र, धर्मज्ञ और निर्भीक)
- सौमदत्तिः — बुरिश्रवा (सौमदत्त का पुत्र, वृद्ध परंतु पराक्रमी योद्धा)
- तथैव च — और भी वैसे ही (शूरवीर और सम्माननीय)
इस सेना में सदा विजयी रहने वाले आप तथा भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि महा पराक्रमी योद्धा हैं जो युद्ध में सदा विजेता रहे हैं।

भावार्थ:
दुर्योधन द्रोणाचार्य से कहता है —
“आप स्वयं, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और बुरिश्रवा (सौमदत्ति) जैसे योद्धा इस सेना में हैं, जो युद्ध में अपराजेय और संग्राम के विजयी हैं। आप सब मेरी सेना के श्रेष्ठ सेनानायक हैं।”
विस्तृत भावार्थ:
1. ‘भवान्’ — गुरु की सर्वोच्च मान्यता:
दुर्योधन सबसे पहले द्रोणाचार्य का नाम लेता है, और उन्हें ‘भवान्’ कहकर संबोधित करता है — यह दर्शाता है कि वह उन्हें सर्वोच्च मान्यता देता है। यह सिर्फ सम्मान नहीं, बल्कि रणनीति भी है — गुरु को महत्व देकर उसकी पूर्ण निष्ठा अर्जित करना।
2. भीष्म — आदर्श, परंतु कर्तव्य से बंधे:
भीष्म को उनकी प्रतिज्ञा के कारण पांडवों के विरुद्ध लड़ना पड़ रहा है, यद्यपि वे धर्म को भलीभांति जानते हैं। उनका नाम यहाँ शक्ति और त्याग दोनों का प्रतीक बनता है — एक ऐसा योद्धा जो व्यक्तिगत भावनाओं को छोड़कर राजधर्म निभा रहा है।
3. कर्ण — निष्ठा और योग्यता का उदाहरण:
कर्ण न केवल युद्धकला में निष्णात है, बल्कि दुर्योधन का परम मित्र और निष्ठा का प्रतीक है। वह उस व्यक्ति का प्रतीक है जो स्वीकृति की तलाश में, अपने जीवन का हर क्षण युद्ध के लिए समर्पित करता है।
4. कृपाचार्य — रणनीति और दीर्घ अनुभव:
कृपाचार्य युद्धकला में निपुण और वृद्ध होने के बावजूद अत्यंत सक्षम योद्धा हैं। उनका नाम यह संकेत देता है कि अनुभव भी एक हथियार होता है।
5. अश्वत्थामा — क्रोध और अजेयता का मिश्रण:
द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को अमरता का वरदान प्राप्त है। वह युद्ध में क्रोध और शक्ति का प्रतीक है। उसका नाम कौरव सेना की अग्निशक्ति दर्शाता है।
6. विकर्ण — न्यायप्रिय कौरव:
विकर्ण कौरवों में वह अकेला था जिसने द्रौपदी के अपमान का विरोध किया था। उसका नाम यहाँ यह दिखाता है कि सत्ता में रहकर भी धर्म की बात करने वाले लोग होते हैं।
7. सौमदत्ति (बुरिश्रवा) — कुलीनता और पराक्रम:
बुरिश्रवा वृद्ध और कुलीन योद्धा हैं, जिनका पांडवों से भी पूर्वजों का वैर रहा है। उनका नाम अनुभव, दृढ़ता और परंपरा की रक्षा का प्रतिनिधित्व करता है।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
सेना की विविधता — शक्ति के विभिन्न स्वरूप:
यह श्लोक दर्शाता है कि एक सशक्त पक्ष में केवल बाहुबल नहीं होता — उसमें अनुभव (कृप), निष्ठा (कर्ण), आदर्श (भीष्म), क्रोध (अश्वत्थामा), और धर्मबोध (विकर्ण) जैसे तत्वों का संतुलन भी होता है।
मनोवैज्ञानिक बल की स्थापना:
दुर्योधन केवल योद्धाओं के नाम नहीं ले रहा — वह द्रोणाचार्य को यह जताने का प्रयास कर रहा है कि यदि ये सब हमारे साथ हैं, तो विजय निश्चित है। यह एक स्वप्रेरणा और प्रेरणा दोनों का साधन है।
गुरु को प्रेरित करने की युक्ति:
श्लोक का पहला शब्द ‘भवान्’ इस बात का प्रतीक है कि दुर्योधन यह युद्ध केवल तलवार से नहीं, वाणी और बुद्धि से भी लड़ रहा है। वह द्रोणाचार्य को सबसे पहले स्थान देकर उनकी युद्ध-निष्ठा को और भी दृढ़ करना चाहता है।
आध्यात्मिक अर्थ:
- भवान् (द्रोण) = ज्ञान का प्रतिनिधित्व
- भीष्म = कर्तव्य और आत्मसंयम
- कर्ण = निष्ठा और आत्मविश्वास
- कृप = अनुभव और नीति
- अश्वत्थामा = क्रोध और शक्ति का संयोजन
- विकर्ण = धर्म की चेतना
- सौमदत्ति = परंपरा और दृढ़ता
यह श्लोक सिखाता है कि जीवन के संग्राम में केवल बाहरी अस्त्र नहीं, आंतरिक गुणों का संतुलन ही सबसे बड़ी सेना है।
निष्कर्ष:
यह श्लोक कौरव पक्ष की रणनीतिक गहराई और नेतृत्व की विविधता को दर्शाता है। यह एक प्रेरणादायक उद्घोषणा है जिसमें निष्ठा, अनुभव, आदर्श, धर्म और शक्ति के सभी स्वरूप एकत्र होकर युद्ध के लिए तत्पर हैं।
आपसे प्रश्न:
जब आप किसी जीवन-संग्राम में उतरते हैं,
क्या आप पहचानते हैं कि आपके साथ “भीष्म” (कर्तव्य), “कर्ण” (निष्ठा), और “अश्वत्थामा” (शक्ति) जैसे गुण खड़े हैं?
क्या आप अपने जीवन में “विकर्ण” जैसी धर्म चेतना को बचाए रखते हैं, भले ही वह सबसे अलग खड़ा हो?