Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 1

English

मूल श्लोक : 1

सञ्जय उवाच।
तं तथा कृपया आविष्टम् अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तम् इदं वाक्यम् उवाच मधुसूदनः॥

शब्दार्थ:

  • सञ्जय उवाच — संजय ने कहा
  • तं — उस (अर्जुन को)
  • तथा — इस प्रकार (विचलित अवस्था में)
  • कृपया आविष्टम् — करुणा से अभिभूत, दया से पूर्ण हो चुका
  • अश्रुपूर्ण — आंसुओं से भरी हुई
  • अकुल-ईक्षणम् — व्याकुल नेत्रों वाला
  • विषीदन्तम् — शोक में डूबा हुआ, दुःखी होता हुआ
  • इदं वाक्यम् — यह वचन, यह बात
  • उवाच — कहा
  • मधुसूदनः — मधु नामक असुर का वध करने वाले श्रीकृष्ण (यहाँ अर्जुन के रक्षक और मार्गदर्शक के रूप में)

संजय बोले — उस अर्जुन को, जो करुणा से भर गया था, जिसकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं और जो गहरे विषाद में डूबा हुआ था, उस से मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह वचन कहा।

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक दूसरे अध्याय की शुरुआत है और युद्धभूमि में अर्जुन की मनोस्थिति का वर्णन करता है — जो अब एक गहरे भावनात्मक और मानसिक द्वंद्व में फँस चुका है।

1. “कृपयाविष्टम्” — दया या मोह?

  • अर्जुन दया से अभिभूत है — परंतु गीता में यह मोह के सूक्ष्म रूप के रूप में प्रस्तुत होता है।
  • यहाँ ‘कृपा’ का अर्थ कर्तव्य से विचलित कर देने वाली करुणा है, जो अर्जुन को युद्ध से रोक रही है।

2. “अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्” — केवल अश्रु नहीं, मानसिक विघटन:

  • आँखें आँसुओं से भर जाना केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है — यह अर्जुन की आत्मिक अस्थिरता को दर्शाता है।
  • उनके नेत्र ‘अकुल’ हैं — अर्थात् वे संयम खो चुके हैं, दृष्टि भ्रमित है।

3. “विषीदन्तम्” — शोक की चरम अवस्था:

  • अर्जुन अब केवल शोकित नहीं है, वह विषाद (गहन नैराश्य) की स्थिति में पहुँच गया है।
  • यह वह बिंदु है जहाँ शिष्य पूरी तरह से मार्गदर्शन हेतु तैयार होता है — जब स्वयं की समझ विफल हो जाती है।

4. “मधुसूदन उवाच” — मार्गदर्शक की वाणी आरंभ होती है:

  • अब श्रीकृष्ण, जो अब तक मौन थे, अर्जुन के शोक को दूर करने के लिए वाणी ग्रहण करते हैं।
  • ‘मधुसूदन’ नाम का प्रयोग इंगित करता है कि अब अज्ञानरूपी राक्षस (मधु) का विनाश प्रारंभ होने वाला है।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

अर्जुन की स्थिति = हर जिज्ञासु की आरंभिक अवस्था:

  • जब भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं, और विवेक धुंधला हो जाता है — तब आत्मा ‘विषीदन्तम्’ हो जाती है।
  • यह अध्यात्म की शुरुआत है — जहाँ शिष्य तैयार है और गुरु बोलने को उद्यत है।

श्रीकृष्ण का मौन अब टूटता है:

  • प्रथम अध्याय में श्रीकृष्ण केवल मार्गदर्शक थे, अब वे आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रकट होते हैं।
  • उनके पहले शब्द ज्ञान का द्वार खोलते हैं — और गीता का असली उपदेश आरंभ होता है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

तत्त्वप्रतीक
कृपया आविष्टम्मोह, संबंधों से जुड़ी भावनात्मक कमजोरी
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्आत्मबल की क्षीणता, विवेक का मंद पड़ जाना
विषीदन्तम्विषाद योग — अध्यात्म का प्रारंभिक द्वार
मधुसूदनअज्ञान-विनाशक, शिष्य को आंतरिक युद्ध से मुक्त करने वाले
उवाचगुरु की प्रथम कृपा — उपदेश का प्रारंभ

नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:

  • जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब भावनाएँ हमें जकड़ लेती हैं और हम अपने कर्तव्य से पीछे हटने लगते हैं।
  • उस समय एक जाग्रत चेतना (मधुसूदन) की आवश्यकता होती है — जो हमें मोह और विषाद से बाहर निकाले।
  • यह श्लोक सिखाता है कि शोक का क्षण ही सबसे बड़ा मोड़ हो सकता है — यदि वहां सही मार्गदर्शन मिल जाए।

आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:

क्या मेरे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं जब मैं ‘विषीदन्तम्’ की स्थिति में होता हूँ?
क्या मेरी ‘कृपा’ वास्तव में धर्म है, या मोह का आवरण?
क्या मैंने कभी उस ‘मधुसूदन’ को सुना है — जो मेरी आत्मा में मौन बैठा है और मार्गदर्शन देना चाहता है?
क्या शोक और भ्रम में डूबा मन ही सबसे तैयार मन नहीं होता?

    निष्कर्ष:

    यह श्लोक गीता के ज्ञान के द्वार का प्रथम कड़ी है।
    यह दर्शाता है कि —

    जब हृदय के आंसू बहने लगते हैं, तब आत्मा प्रश्न करने को तैयार हो जाती है।
    और तब गुरु मौन नहीं रहता — वह बोल पड़ता है।

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