श्लोक – 11
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
शब्दार्थ:
- श्रीभगवान् उवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
- अशोच्यान् — जिनके लिए शोक करना उचित नहीं
- अन्वशोचः — तुम शोक कर रहे हो
- त्वं — तुम
- प्रज्ञावादान् — ज्ञानपूर्ण वचनों को
- च — और
- भाषसे — बोलते हो
- गतासून् — जिनमें प्राण नहीं हैं (मृत)
- अगतासून् — जिनमें प्राण हैं (जीवित)
- च — और
- न अनुशोचन्ति — शोक नहीं करते
- पण्डिताः — ज्ञानी पुरुष
भगवान ने कहा-तुम विद्धत्तापूर्ण वचन कहकर भी उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक के पात्र नहीं हैं। बुद्धिमान पुरुष न तो जीवित प्राणी के लिए शोक करते हैं और न ही मृत के लिए।

विस्तृत व्याख्या:
“अशोच्यान् अन्वशोचः” — यह शोक का स्थान नहीं है:
- अर्जुन पितामह, गुरुजनों, भाई-बन्धुओं के लिए शोक में डूबे हैं।
- श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि यह सच्चे ज्ञान के दृष्टिकोण से शोक का विषय ही नहीं है।
- जो शरीर छोड़ चुके हैं, उनके लिए शोक व्यर्थ है;
जो जीवित हैं, वे भी नश्वर हैं — यह आत्मा का आवरण मात्र है।
“प्रज्ञावादांश्च भाषसे” — तुम ज्ञानी बन रहे हो:
- अर्जुन धर्म, कर्तव्य, करुणा की बातें कर रहा था —
श्रीकृष्ण उसे दर्शाते हैं कि वह सतही ज्ञान है, आत्मिक दृष्टि से रहित।
“गतासून्, अगतासून्” — जीवन और मरण दोनों में तटस्थता:
- “गतासून्” = मृत शरीर
“अगतासून्” = जीवित शरीर - पण्डित (ज्ञानी) उन दोनों में भेद नहीं करता,
क्योंकि वह जानता है कि आत्मा नित्य, अजर, अमर है।
दार्शनिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण:
1. आत्मा के स्तर पर शोक का कोई स्थान नहीं:
- जो आत्मा के अस्तित्व को जानता है,
वह शरीर की हानि या संबंधों की टूटन से व्यथित नहीं होता।
2. बाहरी करुणा और आंतरिक अज्ञान का भेद:
- अर्जुन की करुणा बुद्धिपूर्ण नहीं थी,
यह अज्ञान से प्रेरित थी — श्रीकृष्ण इसी को चुनौती देते हैं।
3. ज्ञान को क्रियात्मक दृष्टि से देखना:
- सिर्फ ज्ञान की बातें करना पर्याप्त नहीं है;
जीवन में उस ज्ञान को दृढ़ता से जीना ही सच्चा पाण्डित्य है।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:
तत्त्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
अशोच्यान् | आत्मा, जो नित्य और अविनाशी है |
अन्वशोचः | अर्जुन का मोह, शोकग्रस्त चित्त |
प्रज्ञावादान् भाषसे | अहंकारजनित तर्क, बिना आत्मसाक्षात्कार के शाब्दिक ज्ञान |
पण्डिताः | जो आत्मा को जानता है, ज्ञान और विवेक से युक्त पुरुष |
गतासून्-अगतासून् | मरणशील शरीर और जीवित शरीर — दोनों माया की स्थितियाँ |
जीवन के लिए शिक्षाएँ:
- जो नष्ट नहीं हो सकता, उसके लिए शोक कैसा?
आत्मा अजर, अमर है — उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। - ज्ञान बोलना सरल है, जीना कठिन।
केवल शास्त्रों की बातें करना पर्याप्त नहीं,
अनुभव और आचरण में लाना जरूरी है। - मृत्यु के भय को मिटाकर जीवन को समझो।
मृत्यु एक परिवर्तन है, समाप्ति नहीं। - सच्चे पण्डित शांति में स्थित होते हैं,
चाहे सामने मृत्यु हो या जीवन — वे आत्मज्ञानी होते हैं।
चिंतन प्रश्न:
क्या मैं आत्मा और शरीर में अंतर स्पष्ट देख पाता हूँ?
क्या मेरे निर्णय शोक और मोह से प्रेरित हैं या विवेक से?
क्या मैं ज्ञान की बातें केवल बोलता हूँ या उन्हें जी भी रहा हूँ?
क्या मैं मृत्यु से डरता हूँ, या उसे एक यात्रा मानकर स्वीकार करता हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक श्रीकृष्ण के उपदेश का पहला शंखनाद है।
यह अर्जुन के मोह को तोड़कर आत्मा की अमरता की ओर संकेत करता है।
अब गीता का दर्शन शरीर से ऊपर उठकर आत्मा के सत्य की यात्रा पर आरंभ होता है।