Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 14

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मूल श्लोक – 14

श्रीभगवानुवाच —
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

शब्दार्थ:

  • मात्रास्पर्शाः — इन्द्रियों के विषयों से संपर्क
  • तु — किंतु
  • कौन्तेय — हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
  • शीतोष्णसुखदुःखदाः — सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख देने वाले
  • आगम-अपायिनः — आने-जाने वाले, क्षणिक
  • अनित्याः — अस्थायी
  • तान् — उन (संवेदनाओं) को
  • तितिक्षस्व — सहन कर
  • भारत — हे भारतवंशी (अर्जुन)

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख तथा दुख का अनुभव क्षण भंगुर है। ये स्थायी न होकर सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान हैं। हे भरतवंशी! मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना उनको सहन करना सीखे।

विस्तृत भावार्थ:

1. इन्द्रिय और विषय का संपर्क:

  • “मात्रास्पर्शाः” का अर्थ है —
    इन्द्रियों (जैसे त्वचा, कान, आंख आदि) का
    बाहरी विषयों (जैसे ताप, ध्वनि, रूप आदि) से संपर्क।
  • जब यह संपर्क होता है, तब हम शीत (सर्दी), उष्ण (गर्मी),
    सुख, या दुख का अनुभव करते हैं।

2. अनुभूतियाँ अस्थायी हैं:

  • ये सभी अनुभव क्षणिक होते हैं
    “आगमापायिनः” यानी जो आते हैं और फिर चले जाते हैं
  • जैसे मौसम बदलता है, वैसे ही दुख-सुख के अनुभव भी बदलते रहते हैं

3. सहनशीलता का उपदेश:

  • भगवान अर्जुन से कह रहे हैं —
    इन क्षणिक अनुभवों को सहन करो, उनमें विचलित मत हो
  • यह “तितिक्षा” कहलाती है —
    सहन करना बिना क्रोध, भय या अशांति के।

प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:

तत्त्वप्रतीक
मात्रास्पर्शाःइन्द्रिय-विषय संपर्क
शीतोष्णसुखदुःखदाःजीवन के विरोधाभासी अनुभव (द्वंद्व)
आगमापायिनःजो आते-जाते हैं — क्षणिकता का संकेत
तितिक्षस्वसहिष्णुता — आत्म-नियंत्रण और मानसिक संतुलन
भारत (अर्जुन)प्रतीक है विवेकशील मन का, जो संघर्ष के क्षणों से गुजरता है

दार्शनिक और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टियाँ:

1. सुख-दुख की नश्वरता:

  • सुख और दुख स्थायी नहीं हैं
    वे समय और परिस्थिति के अनुसार आते-जाते हैं।
  • इसलिए सुख में अहंकार नहीं करना चाहिए,
    और दुख में विचलित नहीं होना चाहिए

2. इन्द्रिय संयम ही आत्म-साक्षात्कार की पहली सीढ़ी है:

  • इन्द्रियों के संगर्षों को सहने से
    मन स्थिर होता है और
    आत्मा के ज्ञान की ओर अग्रसर होता है

3. समत्व की साधना:

  • तितिक्षा यानी सहनशीलता,
    समत्व (equanimity) की ओर पहला कदम है।
  • जीवन में हर कोई सुख चाहता है,
    लेकिन दुख को भी समान दृष्टि से देखना
    ही आध्यात्मिक परिपक्वता है।

जीवन के लिए शिक्षाएँ:

  1. सुख-दुख, सर्दी-गर्मी – ये सब अनुभव क्षणिक हैं।
    उन्हें इतना महत्व मत दो कि वे तुम्हें हिला दें।
  2. हर कठिनाई को धैर्यपूर्वक सहन करो।
    यह तुम्हें मानसिक और आध्यात्मिक रूप से मजबूत बनाएगा।
  3. इन्द्रिय-विषयों का मोह आत्मा की यात्रा में बाधक है।
    उनसे उपर उठना सीखो।
  4. “तितिक्षा” — सहनशीलता,
    मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाती है।

चिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने सुख-दुख को बहुत अधिक गंभीरता से लेता हूँ?
क्या मैं सर्दी-गर्मी, प्रशंसा-आलोचना जैसी चीज़ों से विचलित हो जाता हूँ?
क्या मैं कठिन परिस्थितियों में “तितिक्षा” का अभ्यास करता हूँ?
क्या मेरा ध्यान स्थायी आत्मा पर है या अस्थायी अनुभवों पर?

निष्कर्ष:

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को
मन की स्थिरता और सहनशीलता का अभ्यास करने को कहते हैं।
वे बताते हैं कि सुख-दुख जैसे अनुभव क्षणिक हैं,
उन्हें सहन करना ही धैर्य और आत्म-नियंत्रण का मूल है।

यह शिक्षा हर मनुष्य के लिए अमूल्य है
जो भी जीवन में स्थिरता, शांति और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहता है।

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