Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 16

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मूल श्लोक – 16

श्रीभगवानुवाच
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

शब्दार्थ:

  • नासतः — न असत्, अर्थात जो अस्तित्वहीन है
  • विद्यते भावः — उसका कोई भाव (अस्तित्व) नहीं है
  • न अभावः — न उसकी अनुपस्थिति है
  • विद्यते सतः — सत् अर्थात जो वास्तविक है, उसका कभी अंत नहीं होता
  • उभयोः अपि — दोनों में भी (सत और असत दोनों में)
  • दृष्टः अन्तः — अंत होता है
  • त्व अनयोः — इन दोनों का
  • तत्त्वदर्शिभिः — तत्त्वदर्शी, अर्थात जो सत्य को जानने वाले

अनित्य शरीर का चिरस्थायित्व नहीं है और शाश्वत आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। तत्त्वदर्शियों द्वारा भी इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन करने के पश्चात् निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर इस की पुष्टि की गई है।

विस्तृत भावार्थ:

1. सत्य-असत्य का आधारभूत भेद:

श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को बताते हैं कि
जो नश्वर है, जो असत है — उसका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं।
यह शरीर, इस संसार की सभी वस्तुएं, भावनाएं, सब असत हैं क्योंकि वे नश्वर और क्षणिक हैं।
जबकि आत्मा, जो सत है, अजर-अमर, शाश्वत है, उसका कभी अंत नहीं।

2. असत का अस्तित्वहीनता:

‘नासतो विद्यते भावः’ — अर्थात असत का कोई भाव (अर्थात् अस्तित्व) नहीं है।
जो कभी नहीं था, वह कभी नहीं होगा।
इसलिए शरीर और माया जैसे असत तत्वों के प्रति न चिंता करनी चाहिए।

3. सत का अमरत्व:

‘नाभावो विद्यते सतः’ — सत का कभी अंत नहीं।
आत्मा न कभी जन्मा है, न कभी मरता है। यह अविनाशी है।

4. दोनों के अंत का बोध तत्त्वदर्शियों को ही संभव:

सत और असत के बीच का फर्क केवल ‘तत्त्वदर्शी’ यानी वे जो गूढ़ सत्य को जानते हैं, समझते हैं।
जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से जागरूक है, वही आत्मा और शरीर के बीच के फर्क को पहचान पाता है।

प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:

तत्वप्रतीक
असत (नासत)नश्वर शरीर, क्षणभंगुर जीवन, माया
सत (सततत्व)अमर आत्मा, शाश्वत सत्य
तत्त्वदर्शीआत्मज्ञानी, जो भौतिक और आध्यात्मिक भेद समझता है

दार्शनिक और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि:

  • यह श्लोक अद्वैत वेदांत की मूल भावना को दर्शाता है जहाँ आत्मा को नश्वरता से परे माना गया है।
  • शरीर और मन असत हैं, वे जन्म लेते हैं और मर जाते हैं, जबकि आत्मा अनंत और अमर है।
  • केवल वे जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे सत्य और असत्य के इस भेद को समझ पाते हैं।
  • यह श्लोक मृत्यु के भय को समाप्त करता है क्योंकि आत्मा न तो जन्मी है न कभी मरेगी।

जीवन के लिए शिक्षाएँ:

  1. मृत्यु और शरीर के क्षणिक होने को समझें; इससे भय और दुख कम होता है।
  2. आत्मा की शाश्वत प्रकृति में स्थिर रहें और नश्वर संसार की अनित्यताओं में उलझें नहीं।
  3. आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन देखें — सत और असत के बीच का अंतर समझें।
  4. तत्त्वदर्शी बनने का प्रयास करें — गूढ़ सत्य को जानने की इच्छा और साधना करें।

चिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने शरीर को अपनी असली पहचान समझता हूँ?
क्या मैं मृत्यु को जीवन का अंत मानता हूँ?
क्या मैं आत्मा के अमरत्व को समझ पाया हूँ?
क्या मैं सत और असत में अंतर करने वाला ‘तत्त्वदर्शी’ बनने का प्रयास कर रहा हूँ?

निष्कर्ष:

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को बताते हैं कि मृत्यु और नश्वरता केवल शरीर और माया के लिए है, आत्मा नित्य है। जो व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है, वह जन्म-मरण के भय से मुक्त हो जाता है और जीवन को सही दृष्टि से देख पाता है। यह श्लोक आत्मा और शरीर के बीच के भेद को स्पष्ट करता है और आत्मज्ञान की गहराई में ले जाता है।

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