मूल श्लोक – 17
श्रीभगवानुवाच:
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- अविनाशि — नाशरहित, जो नष्ट नहीं होता
- तु — परंतु
- तत् — उस (आत्मा) को
- विद्धि — जानो, समझो
- येन — जिसके द्वारा
- सर्वम् इदं — यह सम्पूर्ण (संसार)
- ततम् — व्याप्त (फैला हुआ) है
- विनाशम् — विनाश, समाप्ति
- अव्ययस्य — जो अक्षय (न समाप्त होने वाला) है
- अस्य — इसकी (आत्मा की)
- न कश्चित् — कोई भी नहीं
- कर्तुम् अर्हति — करने में समर्थ है
जो पूरे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अनश्वर आत्मा को नष्ट करने मे कोई भी समर्थ नहीं है।

विस्तृत भावार्थ:
1. आत्मा सर्वव्यापक है:
भगवान श्रीकृष्ण आत्मा के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं — यह आत्मा हर जीव में समान रूप से विद्यमान है, यह केवल शरीर तक सीमित नहीं है। आत्मा न सीमित है, न विभाजित। यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।
2. अविनाशिता का रहस्य:
जिस आत्मा से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, वह न तो जन्म लेती है, न मरती है, न ही कभी नष्ट होती है।
उसका नाश कोई भी नहीं कर सकता — न मनुष्य, न देवता, न प्रकृति।
3. कर्म और आत्मा:
हम जो भी क्रियाएं करते हैं, वे शरीर और मन के स्तर पर होती हैं। आत्मा इनसे अछूती रहती है।
शरीर मर सकता है, लेकिन आत्मा अजर है। इसी कारण आत्मा का नाश किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता।
प्रतीकात्मक दृष्टि से:
तत्व | अर्थ या प्रतीक |
---|---|
आत्मा (तत्) | अविनाशी, परमशक्ति, चेतना |
सर्वम् इदं | समस्त संसार, सजीव और निर्जीव सभी |
ततम् | व्यापक, सर्वव्यापी |
विनाश | भौतिक शरीर का अंत |
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
- आत्मा की अक्षयता वेदांत दर्शन की मूल बात है।
- आत्मा समय, स्थान या कारण से बाधित नहीं होती।
- आत्मा न किसी से उत्पन्न होती है, न ही किसी के द्वारा नष्ट की जा सकती है।
- यही शाश्वत सत्ता हमारे सभी कार्यों के पीछे है।
जीवन उपयोगिता:
- जब हम इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि आत्मा अविनाशी है, तो
- मृत्यु का भय समाप्त होता है।
- मोह और दुख कम हो जाता है।
- हम स्थायी आत्मिक शांति की ओर बढ़ते हैं।
आत्मचिंतन हेतु प्रश्न:
क्या मैं अपने शरीर को ही स्वयं समझ रहा हूँ?
क्या मुझे यह बोध है कि आत्मा शाश्वत है और शरीर मात्र एक आवरण है?
क्या मैं इस ज्ञान को जीवन में व्यवहारिक रूप से स्वीकार कर पा रहा हूँ?
निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा के अमर स्वरूप का बोध करा रहे हैं।
यह आत्मा ही प्रत्येक जीव में विद्यमान चेतना है — यह न कभी पैदा होती है, न मरती है, न इसे कोई नष्ट कर सकता है।
यह श्लोक मृत्यु और विनाश की भावना से परे जाकर आत्मा के अजर, अमर और सार्वभौमिक स्वरूप को समझने की प्रेरणा देता है।