मूल श्लोक : 2
श्रीभगवानुवाच।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम् अकीर्तिकरम् अर्जुन॥
शब्दार्थ:
- श्रीभगवान उवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
- कुत: — कहाँ से, किस कारण से
- त्वा — तुझे, तुम्हें
- कश्मलम् — मलिनता, अधर्ममय दुर्बलता, मानसिक कमजोरी
- इदम् — यह
- विषमे — संकट की घड़ी में, विषम परिस्थिति में
- समुपस्थितम् — उपस्थित हुआ, सामने आया
- अनार्यजुष्टम् — अनार्यों के योग्य, अधर्मियों द्वारा अपनाया गया
- अस्वर्ग्यम् — स्वर्ग को न देने वाला, पुण्यविहीन
- अकीर्तिकरम् — अपकीर्ति देने वाला, बदनामी लाने वाला
- अर्जुन — हे अर्जुन!
परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहाः मेरे प्रिय अर्जुन! इस संकट की घड़ी में तुम्हारे भीतर यह विमोह कैसे उत्पन्न हुआ? यह सम्माननीय लोगों के अनुकूल नहीं है। इससे उच्च लोकों की प्राप्ति नहीं होती अपितु अपयश प्राप्त होता ह।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के पहले उपदेशात्मक शब्दों की शुरुआत है। यहाँ वे अर्जुन को झकझोरते हैं और उसका मनोबल पुनः जाग्रत करने का प्रयास करते हैं।
1. “कुतस्त्वा कश्मलम्” — यह मानसिक अपवित्रता कहाँ से आई?
- ‘कश्मलम्’ का अर्थ है मानसिक मलिनता, शोक, मोह और भ्रम।
- श्रीकृष्ण पूछते हैं — तुम जैसे वीर और धर्मज्ञ व्यक्ति को यह मनोविकार कैसे घेर सकता है?
- यह प्रश्न नहीं, एक प्रकार की आत्मिक चुभन है — जो अर्जुन को भीतर से हिला दे।
2. “विषमे समुपस्थितम्” — संकट के समय में यह दुर्बलता क्यों?
- युद्ध का यह समय केवल बाहरी संघर्ष नहीं, आंतरिक युद्ध का भी क्षण है।
- यही समय है वीरता, विवेक और धर्म के साथ खड़े होने का — और अर्जुन भ्रम में है।
3. “अनार्यजुष्टम्” — यह आर्य परंपरा के विपरीत है:
- आर्य = सभ्य, धर्मनिष्ठ, सच्चरित्र पुरुष।
- जो व्यक्ति कर्तव्य से भागे, वह अनार्य है — श्रीकृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि वह एक आर्य योद्धा है, उसे अनार्यों जैसा व्यवहार शोभा नहीं देता।
4. “अस्वर्ग्यम् अकीर्तिकरम्” — न पुण्य, न कीर्ति:
- यह मनोवृत्ति न तो स्वर्ग दिला सकती है, न ही समाज में सम्मान।
- युद्ध से पीछे हटना आत्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक हर दृष्टि से पतन है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
श्रीकृष्ण का उपदेश शैली — झकझोरना, न दुलारना:
- वे अर्जुन को सान्त्वना नहीं देते — बल्कि मर्म को कुरेदते हैं।
- जब आत्मा सो जाती है, उसे सच्चाई का थप्पड़ ही जाग्रत कर सकता है।
कर्म से विमुखता = अधर्म का आरंभ:
- अर्जुन के पास जो धर्म है — वह है क्षण का धर्म: जो क्षण आ पड़ा है, उसमें अपने कर्तव्य को निभाना।
- श्रीकृष्ण याद दिलाते हैं — कर्तव्य से विमुख होना ही अधर्म है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
| तत्त्व | प्रतीक |
|---|---|
| कश्मलम् | आत्मा का अज्ञान, मोह, कर्तव्य से पलायन |
| विषम स्थिति | जीवन की परीक्षा की घड़ी, आत्मिक युद्ध का क्षण |
| अनार्यजुष्टम् | अधर्म का मार्ग, साहसहीनता, आत्मग्लानि |
| अस्वर्ग्यम् | पुण्यहीन परिणाम, आत्मिक अवनति |
| अकीर्तिकरम् | नाम और आत्मसम्मान की हानि |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- कर्तव्य से पलायन चाहे कितनी भी भावुकता से किया जाए — वह समाज में केवल असम्मान और ग्लानि देता है।
- जो संकट के समय धैर्य और साहस छोड़ देता है, वह केवल अपने लिए नहीं — समाज और भविष्य के लिए भी दुर्बल आदर्श प्रस्तुत करता है।
- जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जहाँ केवल धर्म ही हमारा मार्गदर्शन कर सकता है — मोह या करुणा नहीं।
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या मेरे जीवन में भी कोई ‘कश्मलम्’ है — जो मुझे मेरे धर्म से विमुख कर रहा है?
क्या मैं संकट के समय आत्मबल बनता हूँ — या कर्तव्य से भागने का बहाना खोजता हूँ?
क्या मेरी करुणा वास्तव में धर्म है — या केवल कायरता का मुखौटा?
क्या मेरी आत्मा स्वर्ग्य और कीर्तिपूर्ण मार्ग पर है — या केवल आत्मरक्षा के मोह में उलझी हुई?
निष्कर्ष:
यह श्लोक अर्जुन को मानसिक नींद से जगाता है —
यह पहला ऐसा झटका है जो उसे अपने आत्मिक पतन से बचा सकता है।
श्रीकृष्ण अपने पहले ही वाक्य में स्पष्ट कर देते हैं —
कर्तव्य से विमुखता = कीर्ति का नाश + आत्मा का पतन।
