Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 21

English

मूल श्लोक: 21

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

वेदाः — जानते हैं, अनुभव करते हैं, जानने वाले
अविनाशिनं — अविनाशी, नाशरहित
नित्यं — नित्य, शाश्वत
य: — जो
एतत् — यह (आत्मा)
अजम् — अजन्मा
अव्ययम् — अविनाशी, अपराजेय
कथम् — कैसे
सः पुरुषः — वह पुरुष (अर्जुन)
पार्थ: — हे पार्थ (अर्जुन)
कं — किसे
घातयति — मारता है
हन्ति — नष्ट करता है
कम् — किसे

हे पार्थ! वह जो यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, वह किसी को कैसे मार सकता है या किसी की मृत्यु का कारण हो सकता है?

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक आत्मा की अमरता और अपरिवर्तनीयता को स्पष्ट करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से प्रश्न करते हैं कि यदि आत्मा नित्य है, न जन्मी है, और न कभी मरती है, तो फिर युद्ध में जो मारे जाने का भय है, वह कैसे संभव है?

  1. वेदाः का अर्थ है वे लोग जो आत्मा का सच्चा ज्ञान रखते हैं।
  2. आत्मा को न जन्मा हुआ माना गया है क्योंकि वह कभी उत्पन्न नहीं हुई।
  3. वह नष्ट नहीं होती क्योंकि वह अविनाशी और अविनाशित है।
  4. इसलिए, कोई भी पुरुष उसे न मार सकता है न ही नष्ट कर सकता है।

इस ज्ञान के आधार पर अर्जुन को अपने कर्तव्य (युद्ध) में संकोच नहीं करना चाहिए।

दर्शनिक अंतर्दृष्टि:

तत्वअर्थ
वेदाः अविनाशिनं नित्यंज्ञानी लोग जानते हैं कि आत्मा नित्य, अविनाशी है
अजम् अव्ययम्आत्मा अजन्मा और अविनाशी है
कथं स पुरुषःकौन सा पुरुष
कं हन्तिकिसे मारता है

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • आत्मा = नश्वरता से परे, अमर चेतना
  • पुरुषः = शरीर-धारी व्यक्ति, भौतिक मानव
  • मारना = शारीरिक नाश
  • न मारना = आत्मा को शारीरिक रूप से मारा नहीं जा सकता

जीवन उपयोगिता:

  • यह श्लोक हमें जीवन और मृत्यु की वास्तविकता का ज्ञान कराता है।
  • यह भय और भ्रम को दूर कर आत्मा की शाश्वतता पर विश्वास बढ़ाता है।
  • इससे हम अपने कर्तव्य को निडर होकर निभा सकते हैं।
  • युद्ध या जीवन के संघर्ष में आत्मा के नाश न होने का बोध हमें साहस देता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं आत्मा के नश्वर न होने को समझ पाता हूँ?
क्या मेरे कर्मों में आत्मा की अमरता का ज्ञान प्रतिबिंबित होता है?
क्या मैं अपने जीवन के भय से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन कर पा रहा हूँ?

निष्कर्ष:

यह श्लोक आत्मा की अविनाशी, अजन्मा और नित्य प्रकृति को जोर देता है।
यह हमें बताता है कि शरीर का नाश आत्मा के लिए कोई हानि नहीं।
इस ज्ञान से अर्जुन को भय त्यागकर धर्मयुद्ध में दृढ़ता से लड़ना चाहिए।
आत्मा को न कोई मार सकता है, न नष्ट कर सकता है — इसलिए हमें अपने कर्मों में निर्भय होना चाहिए।

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