Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 22

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मूल श्लोक: 22

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

वासांसि — वस्त्र, आवरण (यहाँ शरीर को कहा गया है)
जीर्णानि — पुराने, फटे हुए
यथा — जैसे
विहाय — त्यागकर, छोड़कर
नवानि — नए, ताजे
गृह्वाति — ग्रहण करता है, धारण करता है
नरः — मनुष्य
अपराणि — अन्य, दूसरे
तथा — वैसे ही, उसी प्रकार
शरीराणि — शरीर
विहाय — त्यागकर
जीर्णानि — पुराने
न्यानि — नए
संयाति — ग्रहण करता है, धारण करता है
देही — आत्मा (जो शरीर धारण करता है)

जिस प्रकार से मनुष्य अपने फटे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा पुराने तथा जीर्ण शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।

विस्तृत भावार्थ:

यह श्लोक आत्मा और शरीर के संबंध को एक सहज उदाहरण से समझाता है। मनुष्य जब उसके वस्त्र पुराने और फटे हुए हो जाते हैं, तो वे उन्हें उतारकर नए वस्त्र धारण करता है। उसी तरह आत्मा भी जब वर्तमान शरीर बूढ़ा और क्षीण हो जाता है, तो उसे त्यागकर नया शरीर ग्रहण करती है।

  1. वस्त्र का उपयोग शरीर के लिए उपमित किया गया है।
  2. शरीर का नष्ट होना और नया शरीर धारण करना स्वाभाविक प्रक्रिया है।
  3. आत्मा नित्य है, वह शरीरों के बदलने से अप्रभावित रहती है।
  4. इस दृष्टि से मृत्यु एक प्रकार के वस्त्र बदलने के समान है, जो भयभीत होने का विषय नहीं।

दर्शनिक अंतर्दृष्टि:

तत्वअर्थ
वासांसि जीर्णानिपुराने वस्त्र जो टूट चुके हैं
गृह्वाति नवानिनए वस्त्र धारण करता है
शरीराणि विहाय जीर्णापुराने शरीर को छोड़कर
न्यन्यानि नवानि देहीनया शरीर ग्रहण करता है आत्मा

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • वस्त्र = शरीर
  • वस्त्र बदलना = जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया
  • आत्मा = जो शरीर को धारण करता है लेकिन स्वयं अप्रभावित रहता है

जीवन उपयोगिता:

  • शरीर के क्षीण और नष्ट होने को स्वीकार करें, यह जीवन का प्राकृतिक नियम है।
  • आत्मा की शाश्वतता को समझकर जीवन में भय और मोह को त्यागें।
  • मृत्यु को वस्त्र बदलने के समान मानकर जीवन की अनिश्चितताओं को सहजता से स्वीकार करें।
  • यह ज्ञान हमें जीवन की सच्ची स्थिरता और आत्मनिर्भरता सिखाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने शरीर को केवल एक वस्त्र के रूप में देख पाता हूँ?
क्या मृत्यु को नए वस्त्र ग्रहण करने की प्रक्रिया के रूप में स्वीकार कर सकता हूँ?
क्या मुझे आत्मा की शाश्वत प्रकृति का पूर्ण ज्ञान है?

निष्कर्ष:

यह श्लोक हमें शरीर और आत्मा के बीच के अंतर को सहजता से समझाता है।
जैसे वस्त्र पुराने हो जाते हैं और बदले जाते हैं, वैसे ही आत्मा शरीरों के परिवर्तन के चक्र से गुजरती रहती है।
इस ज्ञान से भय, मोह और अनिश्चय दूर होते हैं और जीवन की सच्ची स्थिरता का बोध होता है।

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