Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 26

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मूल श्लोक: 26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

  • अथ — फिर, यदि
  • — भी
  • एनम् — इस (आत्मा/जीव) को
  • नित्यजातम् — सदा जन्म लेने वाला
  • नित्यं मृतम् — सदा मरने वाला
  • वा — या
  • मन्यसे — यदि तुम मानते हो
  • तथापि — तब भी, इसके बावजूद
  • त्वम् — तुम
  • महाबाहो — हे बलवान (अर्जुन)
  • — नहीं
  • एवम् — इस प्रकार
  • शोचितुम् — शोक करना
  • अर्हसि — योग्य हो, तुम्हें चाहिए

यदि तुम यह सोंचते हो कि आत्मा निरन्तर जन्म लेती है और मरती है तब ऐसी स्थिति में भी, हे महाबाहु अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार से शोक नहीं करना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में श्रीकृष्ण यह मान लेते हैं कि यदि आत्मा नित्य नहीं है — अर्थात यदि यह शरीर के साथ ही जन्म लेती है और मर जाती है (भौतिकवादी दृष्टिकोण) — तब भी शोक करना बुद्धिमत्ता नहीं है।

यह एक तार्किक उत्तर है — जो उन लोगों के लिए है जो आत्मा की शाश्वतता को नहीं मानते।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि:

  • यदि जीवन बार-बार जन्म-मृत्यु का चक्र है,
  • और मृत्यु एक स्वाभाविक नियम है,
  • तो भी किसी के मरने पर रोना मूर्खता है।

क्योंकि मृत्यु तो अनिवार्य है, और उस पर शोक करना व्यर्थ है।

दर्शनिक अंतर्दृष्टि:

विचार प्रणालीनिष्कर्ष
वेदांत (आत्मा शाश्वत है)तो मृत्यु पर शोक नहीं होना चाहिए
भौतिकवादी (आत्मा नित्य जन्म-मरण करती है)तब भी मृत्यु पर शोक व्यर्थ है, क्योंकि यह स्वाभाविक चक्र है

इस प्रकार भगवान हर दृष्टिकोण से अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि शोक करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं।

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • नित्यजातं = निरंतर जन्म लेने वाला (जीवन का चक्र)
  • नित्यं मृतम् = निरंतर मरने वाला (मरण का नियम)
  • शोक = अज्ञानजन्य दुःख
  • महाबाहो = बाहरी शक्ति से अधिक आंतरिक विवेक का स्मरण

जीवन उपयोगिता:

  • चाहे हम आध्यात्मिक सोचें या भौतिक रूप से, मृत्यु एक सत्य है।
  • इसके लिए शोक करना ऊर्जा का व्यर्थ उपयोग है।
  • विवेकशील बनकर अपने कर्तव्य पर टिके रहना ही श्रेष्ठ है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं मृत्यु को प्राकृतिक चक्र के रूप में स्वीकार कर पाया हूँ?
क्या मेरा शोक ज्ञानहीनता से उत्पन्न है?
क्या मैं अपने जीवन और कर्म को शोक से ऊपर उठाकर देख पा रहा हूँ?

निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण इस श्लोक में तर्क की शक्ति से अर्जुन को यह समझाते हैं कि चाहे वह आत्मा को शाश्वत माने या न माने — दोनों ही दशाओं में मृत्यु पर शोक करना अनुचित है।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं, बल्कि क्रमिक परिवर्तन है — और हमें इससे विचलित नहीं होना चाहिए, बल्कि अपने कर्तव्यपथ पर अडिग रहना चाहिए।

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