मूल श्लोक: 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
स्वधर्मम् — अपना धर्म (जातिगत या सामाजिक कर्तव्य)
अपि च — और भी
आवेक्ष्य — देखते हुए, ध्यान में रखते हुए
न — नहीं
विकम्पितुम् — विचलित होना, हिलना-डुलना, डरना
अर्हसि — योग्य हो
धर्म्यात् — धार्मिक (न्यायोचित, धर्म पर आधारित)
हि — निश्चय ही
युद्धात् — युद्ध से
श्रेयः — श्रेष्ठ, उत्तम
अन्यत् — अन्य, दूसरा
क्षत्रियस्य — क्षत्रिय के लिए
न विद्यते — नहीं है, विद्यमान नहीं है
इसके अलावा एक योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य पर विचार करते हुए तुम्हें उसका त्याग नहीं करना चाहिए। वास्तव में योद्धा के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

विस्तृत भावार्थ:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को स्वधर्म की महत्ता समझा रहे हैं।
अर्जुन एक क्षत्रिय हैं — और क्षत्रिय का सर्वोच्च धर्म है धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना।
जब धर्म की हानि हो रही हो, जब अधर्म बढ़ रहा हो, तब युद्ध से पीछे हटना केवल कर्तव्यत्याग ही नहीं, बल्कि धर्मत्याग है।
ध्यान दें, यहाँ “युद्ध” का अर्थ केवल हिंसा नहीं है —
यह युद्ध है अधर्म के विरुद्ध,
यह युद्ध है अन्याय के विरुद्ध,
यह युद्ध है कर्तव्य और सत्य की रक्षा के लिए।
अर्जुन अगर केवल भावनाओं के कारण पीछे हट जाते हैं, तो यह धर्म की अवहेलना होगी।
श्रीकृष्ण उन्हें झकझोरते हुए कहते हैं:
“क्या तुम अपने ही धर्म को देखकर भी डर रहे हो? क्षत्रिय के लिए इससे श्रेष्ठ अवसर कोई नहीं!”
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
स्वधर्म | अपनी प्रकृति और समाज के अनुसार निर्धारित कर्तव्य |
धर्म्य युद्ध | न्यायोचित युद्ध, धर्म की रक्षा के लिए किया गया संघर्ष |
क्षत्रिय | जो दूसरों की रक्षा के लिए खड़ा हो — केवल जाति नहीं, वृत्ति का भी संकेत |
विकम्प | मोह, भय या भ्रम से उत्पन्न मानसिक अस्थिरता |
यह श्लोक कर्मयोग का प्रतीक है —
कर्तव्य ही धर्म है, और उसे निष्काम भाव से निभाना ही योग है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- स्वधर्म = जीवन में हमारी भूमिका और ज़िम्मेदारी (पिता, शिक्षक, नेता, सैनिक आदि)
- युद्ध = जीवन में आने वाली चुनौतियाँ और संघर्ष
- विकम्पित होना = आत्मविश्वास खोना, अपने मूल्यों से हटना
- श्रेयः = दीर्घकालिक भलाई, आत्मोन्नति
जीवन उपयोगिता:
- जीवन में हम सबका एक “स्वधर्म” होता है — वह चाहे किसी पेशे में हो, रिश्ते में हो, या समाज में।
- जब कठिनाई आए, तब अगर हम अपने धर्म से डिग जाएँ, तो वह आत्मग्लानि और पतन का कारण बनता है।
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्तव्य से भागना ही सबसे बड़ा पाप है।
- यदि हम अपने जीवन संग्राम में धर्म के आधार पर खड़े रहें, तो विजय या पराजय नहीं, केवल उन्नति ही संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने जीवन के “स्वधर्म” को पहचान पा रहा हूँ?
जब चुनौती आती है, क्या मैं उससे डरकर पीछे हटता हूँ या कर्तव्य पर अडिग रहता हूँ?
क्या मेरी प्रेरणा केवल फल पाने की है या धर्म निभाने की?
क्या मैं अपने सामाजिक और पारिवारिक उत्तरदायित्वों को धर्म समझकर निभा रहा हूँ?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके धर्म की याद दिलाकर मोह से उबारते हैं।
धर्म की रक्षा के लिए किया गया युद्ध — चाहे वह बाहरी हो या आंतरिक — वह श्रेष्ठ कर्म है।
जो अपने कर्तव्य से डिगता है, वह अपने आत्मिक उत्थान का मार्ग बंद कर लेता है।
परंतु जो धर्म के लिए युद्ध करता है, वह न केवल समाज की रक्षा करता है, बल्कि स्वयं को भी अज्ञान और भय से मुक्त करता है।
यह श्लोक आज के युग में भी प्रासंगिक है — जब हम सत्य, कर्तव्य और नैतिकता के लिए खड़े होते हैं, वही जीवन का वास्तविक धर्म होता है।