मूल श्लोक: 33
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- अथ चेत् — यदि अब
- त्वम् — तुम
- इमम् — इस
- धर्म्यम् — धर्मयुक्त, धर्म के अनुसार
- संग्रामम् — युद्ध, संघर्ष
- न करिष्यसि — नहीं करोगे
- ततः — तब, उसके बाद
- स्वधर्मम् — अपना धर्म, कर्तव्य
- कीर्तिम् — यश, प्रतिष्ठा
- च — और
- हित्वा — त्यागकर
- पापम् — पाप, दोष
- अवाप्स्यसि — प्राप्त करोगे
यदि फिर भी तुम इस धर्म युद्ध का सामना नहीं करना चाहते तब तुम्हें निश्चित रूप से अपने सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम अपनी प्रतिष्ठा खो दोगे।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके कर्तव्य का गंभीर पक्ष दिखाते हैं।
अब तक वे उसे आत्मा की अमरता और युद्ध के दिव्य स्वरूप को समझा चुके हैं।
अब वे उसे उसके निर्णय के परिणामों की ओर लाते हैं।
यदि अर्जुन इस धर्म युद्ध से पीछे हटता है,
तो वह न केवल अपने क्षत्रिय धर्म (स्वधर्म) को त्यागेगा,
बल्कि अपनी कीर्ति (मान-सम्मान) को भी खो देगा।
इतना ही नहीं, वह पाप का भागी भी बनेगा —
क्योंकि जहाँ धर्म की रक्षा होनी चाहिए और तुम सक्षम हो,
वहाँ पीछे हटना पाप ही है।
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि कर्तव्य से विमुख होना केवल कायरता नहीं, पाप है।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
धर्म्य संग्राम | ऐसा युद्ध जो धर्म की रक्षा के लिए हो |
स्वधर्म | जीवन की भूमिका और उसका यथार्थ कर्तव्य |
कीर्ति | आत्म-सम्मान, समाज में यश |
पाप | केवल हिंसा नहीं, कर्तव्य से भागना भी दोष है |
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि केवल अहिंसा से ही धर्म नहीं होता।
धर्म वही है जो उचित समय पर उचित कर्म करने से होता है।
जो व्यक्ति सामर्थ्य होते हुए भी अन्याय का विरोध नहीं करता, वह पाप का भागी होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- धर्म्य संग्राम = जीवन में सत्य और न्याय के लिए संघर्ष
- स्वधर्म = आत्मा का प्राकृतिक कर्तव्य (कर्मयोग)
- कीर्ति = केवल समाज में प्रतिष्ठा नहीं, आत्मगौरव भी
- पाप = अपने कर्तव्य की अवहेलना
जीवन उपयोगिता:
- जीवन में ऐसे कई क्षण आते हैं जब धर्म या नैतिकता के लिए खड़ा होना कठिन होता है।
- उस समय अगर हम चुप रहते हैं या पीछे हटते हैं, तो बाहर भले कोई न कहे,
लेकिन भीतर हम सम्मान खो देते हैं। - समाज में कीर्ति की हानि और अंतर्मन में दोषबोध — दोनों ही
एक सच्चे व्यक्ति के लिए आत्मिक पीड़ा का कारण बनते हैं। - जो अपने कर्तव्य से भागता है, वह केवल निष्क्रिय नहीं होता — वह पाप का भागी होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने स्वधर्म को पहचान पा रहा हूँ या उससे दूर भाग रहा हूँ?
क्या मैं समाज और आत्मा दोनों के सामने ईमानदार रह पा रहा हूँ?
क्या मेरे निर्णय पाप से बचने के लिए हैं या केवल भय से प्रेरित हैं?
क्या मैं कोई ऐसा निर्णय टाल रहा हूँ जो धर्मसंगत संघर्ष की माँग करता है?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को चेतावनी देते हैं —
यदि तुम अपने धर्म और कर्तव्य को त्यागोगे,
तो केवल यश नहीं खोओगे, बल्कि अधर्म का भागी बन जाओगे।
धर्म से पीछे हटना, कीर्ति की हानि से भी अधिक गंभीर है —
यह पाप है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि
कर्तव्य से विमुख होना न केवल कायरता है,
बल्कि आत्मा और समाज — दोनों के प्रति अवहेलना है।
इसलिए, धर्म को जानो, कर्तव्य निभाओ —
यही सच्चा पुरुषार्थ है।