Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 34

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मूल श्लोक: 34

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

  • अकीर्तिं — बुरी कीर्ति, अपमान
  • — भी
  • अपि — भी
  • भूतानि — जीव, लोग
  • कथयिष्यन्ति — कहेंगे, बताएंगे
  • ते — तुम्हारे
  • अव्ययाम् — अमर, नष्ट न होने वाली
  • सम्भावितस्य — संभावित, उत्पन्न हुआ
  • — और
  • अकीर्तिः — बुरी कीर्ति
  • मरणात् — मृत्यु से
  • अतिरिच्यते — अधिक घृणित, अधिक निन्दनीय

लोग तुम्हें कायर और भगोड़ा कहेंगे। एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर है।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को चेतावनी देते हैं कि केवल शारीरिक मृत्यु से भयभीत होना उचित नहीं है।
बल्कि उस मृत्यु से कहीं अधिक भयावह और घृणित होती है अकीर्ति
अर्थात् बुरी कीर्ति, जो जीवन में किए गए अधर्म या कर्तव्यहीनता के कारण आती है।
जब कोई व्यक्ति अपने धर्म का पालन नहीं करता और अधर्म की ओर बढ़ता है,
तो उसकी कीर्ति अपमानित हो जाती है और लोग उसे हमेशा निन्दा की दृष्टि से देखते हैं।
यह अकीर्ति अमर हो जाती है, यानी समय के साथ भी मिटती नहीं।
लोगों के हृदयों में यह नकारात्मक छवि बनी रहती है।
इसलिए मृत्यु के भय से अधिक भयावह है समाज में और आत्मा में खराब प्रतिष्ठा प्राप्त करना।
अतः कर्तव्य से विमुख होना आत्मिक और सामाजिक दोनों दृष्टि से घातक है।

दार्शनिक अंतर्दृष्टि:

तत्वअर्थ
अकीर्तिबुरी कीर्ति, कलंक, अपमान
अव्ययम्नाश न होने वाली, अमर
मरणशारीरिक शरीर का नाश
अतिरिच्यतेअत्यधिक निन्दनीय, घृणित

यह श्लोक सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर सम्मान और कीर्ति की महत्ता बताता है।
शरीर नष्ट हो सकता है परन्तु कीर्ति अमर रहती है —
अच्छी या बुरी, दोनों ही प्रकार की।
इसलिए जीवन में सही कर्म और धर्म का पालन सर्वोपरि है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • अकीर्ति = अधर्म या कर्तव्यहीनता के कारण समाज में खराब छवि
  • अव्ययम् = स्थायी प्रभाव, जो कभी मिटता नहीं
  • मरण = शरीर का अंत
  • अतिरिच्यते = उससे भी अधिक घृणित और निन्दनीय होना

जीवन उपयोगिता:

  • जीवन में अपने कर्मों और निर्णयों का सामाजिक प्रभाव बहुत बड़ा होता है।
  • केवल मृत्यु से भयभीत रहना, अपने कर्तव्य से भागना पर्याप्त नहीं है।
  • समाज में बुरी प्रतिष्ठा से बचना उतना ही जरूरी है जितना अपने जीवन की रक्षा।
  • अच्छा कर्म और सही निर्णय ही अमर कीर्ति का आधार हैं।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने कर्मों का समाज और आत्मा पर स्थायी प्रभाव समझ पाता हूँ?
क्या मैं अपने पाप और अधर्म के कारण बुरी कीर्ति प्राप्त करने से डरता हूँ?
क्या मैं केवल शारीरिक मृत्यु से डरता हूँ या अपने कर्मों के परिणाम से भी सजग हूँ?
क्या मेरा जीवन समाज में सम्मान पाने योग्य है?

निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि मृत्यु से अधिक भयावह है अकीर्ति
जो हमारे अधर्म और कर्तव्यहीनता के कारण अमर होकर लोगों के मन में बनी रहती है।
इसलिए अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना न केवल आत्मा के लिए,
बल्कि समाज में सम्मान और कीर्ति बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।
यह श्लोक जीवन को सामाजिक और आध्यात्मिक दायित्वों के संदर्भ में समझने का सशक्त साधन है।

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