Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 35

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मूल श्लोक: 35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥

शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):

  • भयात् — भय से
  • रणात् — युद्ध से
  • उपरतम् — पीछे हटे हुए, भागे हुए
  • मंस्यन्ते — मानेंगे, समझेंगे
  • त्वाम् — तुम्हें
  • महारथाः — महान योद्धा
  • येषां — जिनके
  • — और
  • त्वम् — तुम
  • बहुमतः — अत्यंत सम्मानित, प्रिय
  • भूत्वा — होकर
  • यास्यसि — जाओगे, प्राप्त करोगे
  • लाघवम् — तुच्छता, हीनता

 जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम और यश की सराहना की है, वे सब यह सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्धभूमि से भाग गये और उनकी दृष्टि में तुम अपना सम्मान गंवा दोगे।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन के मन में छिपे भय और संकोच को सीधा संबोधित करते हैं।
वह कहते हैं कि अगर तुम इस धर्मयुक्त युद्ध से पीछे हटते हो,
तो जो महान योद्धा पहले तुम्हें वीर, नायक और सम्मानित मानते थे,
वही अब सोचेंगे कि तुम युद्ध के भय से पीछे हटे हो।
उनकी दृष्टि में तुम्हारा मूल्य गिर जाएगा, और तुम्हें एक कायर समझा जाएगा।

यह बात केवल बाह्य सम्मान की नहीं है — यह उस आत्मबल और आत्मगौरव की है,
जो अर्जुन जैसे वीरों की आत्मा में होता है।
अगर कोई योद्धा रणभूमि से भाग जाए,
तो उसकी कीर्ति नष्ट हो जाती है और उसका नाम तुच्छता में गिर जाता है।
यह लाघव (तुच्छता) केवल समाज में ही नहीं, आत्मा में भी दोष छोड़ जाती है।

दार्शनिक अंतर्दृष्टि:

तत्वअर्थ
भयात्डर के कारण
रणात् उपरतम्युद्ध से हटना या भागना
मंस्यन्तेलोग समझेंगे, मूल्यांकन करेंगे
बहुमतःजिनके लिए बहुत प्रिय और सम्मानित हो
लाघवम्तुच्छता, सम्मान में गिरावट

इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग और धर्म की रक्षा के लिए
कर्म के मैदान से भागने को आत्मघात बताते हैं।
क्योंकि योद्धा के लिए केवल शत्रु से नहीं, अपने भीतर के भय से लड़ना भी युद्ध का हिस्सा है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • रणभूमि से हटना = जीवन के संघर्षों से भागना
  • महारथी = समाज, आत्मा, कर्तव्य के मूल्यांकनकर्ता
  • बहुमान = अर्जित सम्मान, सामाजिक और आत्मिक सम्मान
  • लाघवम् = आत्मबल में गिरावट, आत्मसम्मान का पतन

जीवन उपयोगिता:

  • जब हम अपने कर्तव्य और धर्म से पीछे हटते हैं, तो समाज का विश्वास भी खो बैठते हैं।
  • आत्मगौरव और बाह्य कीर्ति दोनों का ह्रास होता है।
  • यदि भय या मोह के कारण सही कार्य से मुँह मोड़ें, तो यह दीर्घकालिक लज्जा और पश्चाताप का कारण बनता है।
  • सम्मान पाने से अधिक कठिन होता है — उसे बनाए रखना।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने भय के कारण अपने धर्म और कर्तव्य से पीछे हट रहा हूँ?
क्या मैं अपने सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा हूँ या उसे खो बैठने दे रहा हूँ?
जिन लोगों ने मुझ पर विश्वास किया है, क्या मैं उन्हें निराश कर रहा हूँ?
क्या मेरी आत्मा मुझे आज लाघव या गौरव के पथ पर देख रही है?

निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह स्मरण कराते हैं कि
कर्तव्य से पीछे हटने पर केवल व्यक्तिगत हानि नहीं होती —
बल्कि समाज और आत्मा, दोनों में हमारी प्रतिष्ठा गिरती है।
जो सम्मान वर्षों में अर्जित होता है, वह पलभर में नष्ट हो सकता है।
इसलिए वीरता से अपने धर्म का पालन करना ही सच्चा जीवन है।
यह श्लोक हमें कर्म, सम्मान और आत्मबल की गहराई से पहचान कराता है।

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