मूल श्लोक: 36
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- अवाच्यवादान् — असभ्य, अशोभनीय, कहने योग्य नहीं
- च — और
- बहून् — बहुत से
- वदिष्यन्ति — कहेंगे, बोलेंगे
- तवाहिताः — तुम्हारे शत्रु, दुर्भावनापूर्ण लोग
- निन्दन्तः — निंदा करते हुए
- तव — तुम्हारी
- सामर्थ्य — शक्ति, वीरता, क्षमता
- ततः — उससे
- दुःखतरम् — और भी अधिक दुःखद
- नु किम् — भला क्या (उससे बढ़कर कोई दुःख है?)
तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करेंगे और कटु शब्दों से तुम्हारा मानमर्दन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास उड़ायेंगें। तुम्हारे लिए इससे पीड़ादायक और क्या हो सकता है?

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए बाहरी परिणामों की ओर संकेत करते हैं।
वह कहते हैं — यदि तुम युद्ध से भागते हो, तो केवल तुम्हारे साथी ही नहीं,
बल्कि शत्रु भी तुम्हारा अपमान करेंगे।
वे अपशब्दों और निंदाओं से तुम्हारी वीरता पर प्रहार करेंगे।
वह कहेंगे, “देखो अर्जुन, जो इतने पराक्रमी कहलाते थे, वह डरकर युद्ध से भाग गया।”
ये बातें तुम्हारे सम्मान को ठेस पहुँचाएँगी और यह पीड़ा किसी भी शारीरिक हानि से कहीं अधिक होगी।
यह केवल पराजय नहीं होगी — यह अपमान का स्थायी दाग होगा।
अर्जुन जैसा यशस्वी योद्धा समाज में एक उपहास का पात्र बन जाएगा।
श्रीकृष्ण यह दिखाना चाहते हैं कि कर्तव्य से भागने का परिणाम केवल अंतरात्मा में ही नहीं,
बल्कि समाज के कटु वचनों में भी परिलक्षित होता है।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
| तत्व | अर्थ |
|---|---|
| अवाच्यवाद | जो वाणी में लाने योग्य नहीं, अत्यंत अपमानजनक |
| तवाहिताः | जो तुम्हारे अहित की कामना करते हैं, विरोधी |
| निन्दा | बाहरी जगत में आत्मबल और कीर्ति का पतन |
| सामर्थ्य | केवल शारीरिक शक्ति नहीं, नैतिक और मानसिक बल |
| दुःखतरम् | आंतरिक वेदना जो आत्मसम्मान पर आघात से उपजती है |
यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि न केवल पराजय दुखद है,
बल्कि उस पर की गई उपहासजनक टिप्पणी और निंदा उससे भी अधिक पीड़ा देती है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- अवाच्यवाद = ऐसा अपमान जो आत्मा को घायल कर दे
- निन्दा = कर्मत्याग का सामाजिक दंड
- दुश्मन की वाणी = अंदर छिपे भय को बाहर प्रकट करना
- सामर्थ्य की उपेक्षा = आत्मविश्वास की क्षति
जीवन उपयोगिता:
- जीवन में जब हम कर्तव्य से भागते हैं, तो लोग न केवल परिणाम देखते हैं,
बल्कि उस पर अपनी टिप्पणी और व्याख्या भी करते हैं। - हमारे विरोधी इसे हमारे चरित्र की दुर्बलता मानते हैं, और सार्वजनिक रूप से अपमान करते हैं।
- यह सामाजिक अपमान अंततः आत्मा को पीड़ा देता है और आत्मबल को कमज़ोर करता है।
- इसलिए, सम्मान की रक्षा हेतु सही कार्य करना आवश्यक है — चाहे वह कठिन हो।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने कर्तव्यों से भागकर दूसरों को मेरी निंदा का अवसर दे रहा हूँ?
क्या मेरे जीवन में लोग मेरी वीरता की बात करते हैं या मेरी कायरता की?
क्या मैंने कभी बाहरी आलोचना से अधिक पीड़ा अनुभव की है, जो मेरे कर्तव्यच्युत होने से उपजी?
क्या मैं दूसरों के शब्दों से डरकर नहीं, अपने आत्मबल से प्रेरित होकर कर्म करता हूँ?
निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को चेताते हैं कि यदि वह धर्म युद्ध से पीछे हटता है,
तो उसके शत्रु उस पर अपशब्द कहेंगे और उसकी वीरता की निंदा करेंगे।
यह अपमान उसकी आत्मा के लिए सबसे बड़ा दुःख बन जाएगा।
इसलिए, केवल बाह्य पराजय नहीं, बल्कि आत्मिक और सामाजिक हार को समझकर
कर्तव्य का पालन करना ही वास्तविक वीरता है।
यह श्लोक हमें सम्मान, कर्तव्य और आत्मसम्मान की रक्षा का संदेश देता है।
