मूल श्लोक: 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ):
- सुख-दुःखे — सुख और दुःख
- समे कृत्वा — समान मानकर, समभाव से
- लाभ-अलाभौ — लाभ और हानि
- जय-अजयौ — जीत और हार
- ततः — उसके बाद, इसलिए
- युद्धाय — युद्ध के लिए
- युज्यस्व — संलग्न हो, जुट जाओ
- न — नहीं
- एवम् — इस प्रकार (समत्व से)
- पापम् — पाप, दोष
- अवाप्स्यसि — प्राप्त करोगे
कर्तव्यों के पालन हेतु युद्ध करो, युद्ध से मिलने वाले सुख-दुःख, लाभ-हानि को समान समझो। यदि तुम इस प्रकार अपने दायित्त्वों का निर्वहन करोगे तब तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का सार सिखाते हैं।
वे कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए
भावनात्मक रूप से सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीत-हार में फंसे बिना
संतुलित मन से कर्म करे,
तो वह पाप या दोष का भागी नहीं होता।
यहाँ “युद्ध” केवल कुरुक्षेत्र का ही नहीं,
बल्कि जीवन के हर धर्मसंकट और संघर्ष का भी प्रतीक है।
हमें जीवन में कई बार ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं
जहाँ भावनाएं हमें विचलित करती हैं —
लेकिन यदि हम तटस्थ भाव से धर्म के अनुसार निर्णय लें,
तो वह निष्कलंक होता है।
दार्शनिक अंतर्दृष्टि:
तत्व | अर्थ |
---|---|
समत्व | सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को एक समान दृष्टि से देखना |
युद्ध | धर्म के लिए संघर्ष, चाहे वह भीतर हो या बाहर |
पाप | जब हम मोह, भय, या लालच से प्रेरित होकर कर्तव्यच्युत होते हैं |
समत्व-बुद्धि | निष्काम कर्मयोग का आधार, गीता का हृदय |
यह श्लोक गीता के कर्मयोग दर्शन की नींव रखता है —
“कर्तव्य करो, फल की चिंता न करो; समत्व ही योग है।”
प्रतीकात्मक अर्थ:
- सुख-दुःख = मन की प्रतिक्रियाएँ
- लाभ-हानि = भौतिक परिणाम
- जय-अजय = सामाजिक मान्यता या असफलता
- समत्व = स्थिरता, तटस्थता, आध्यात्मिक संतुलन
- युद्ध = आत्मसंघर्ष या संसार का उत्तरदायित्व
जीवन उपयोगिता:
- जब हम किसी कार्य को फल की आशा या भय में फँसकर करते हैं,
तो उसमें मोह और अहंकार प्रवेश कर जाता है — जो कर्म को पापबद्ध बनाता है। - लेकिन यदि हम कर्तव्य भाव से,
मन को समत्व में स्थिर करके कर्म करें,
तो वह हमें मुक्त करता है।
श्रीकृष्ण यह सिखा रहे हैं कि
धर्म का कार्य करना पाप नहीं है,
धर्म से च्युत होकर कर्तव्य त्यागना पाप है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने कर्तव्यों में फल की चिंता से बंधा हुआ हूँ?
क्या मेरी भावनाएँ मुझे धर्म के मार्ग से डिगा रही हैं?
क्या मैं जय-पराजय को ही जीवन का मूल्य मानता हूँ?
क्या मैं किसी भी परिस्थिति में समत्व बनाए रख सकता हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक जीवन की प्रत्येक चुनौती के लिए एक गहन दृष्टिकोण देता है —
संतुलित मन से, धर्मबुद्धि से, और निष्काम भावना से कर्म करना ही मुक्तिप्रद है।
हे अर्जुन! जब तुम सुख-दुःख, लाभ-हानि, विजय-पराजय को
समान दृष्टि से देखने लगोगे —
तभी तुम अपने धर्म का पालन करते हुए
वास्तविक रूप से निष्पाप कर्म कर सकोगे।