मूल श्लोक 41
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥41॥
शब्दार्थ:
- व्यवसायात्मिका — दृढ़ निश्चय वाली
- बुद्धिः — बुद्धि
- एका — एक (एकाग्र)
- इह — इस लोक में / यहाँ
- कुरुनन्दन — हे कुरुवंश का आनंददाता (अर्जुन)
- बहुशाखाः — अनेक शाखाओं वाली
- हि — निश्चय ही
- अनन्ताः — अनगिनत, अंतहीन
- च — और
- बुद्धयः — बुद्धियाँ
- अव्यवसायिनाम् — जिनका निश्चय दृढ़ नहीं है / चंचल चित्त वाले
हे कुरुवंशी! जो इस मार्ग का अनुसरण करते हैं, उनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है और उनका एक ही लक्ष्य होता है लेकिन जो मनुष्य संकल्पहीन होते हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं मे विभक्त रहती है।

विस्तृत भावार्थ:
श्रीकृष्ण अर्जुन को साङ्ख्य योग (ज्ञान का मार्ग) समझा चुके हैं और अब कर्मयोग (कर्म का मार्ग) की ओर उसकी बुद्धि को मोड़ते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण बताते हैं कि वास्तविक योगी की बुद्धि ‘व्यवसायात्मिका’ — यानी एकाग्र और निश्चयी होती है। ऐसा साधक केवल मोक्ष या आत्मोन्नति के लक्ष्य पर केंद्रित रहता है।
इसके विपरीत, जो लोग संसार की विविध इच्छाओं में फंसे रहते हैं, उनकी बुद्धियाँ चंचल होती हैं — वे कभी धर्म की बात सोचते हैं, कभी भोग की, कभी शक्ति की, और कभी मोक्ष की। ऐसी बहुशाखा बुद्धि लक्ष्य से दूर हो जाती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
1. ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः एका’ – निश्चयबुद्धि का महत्व
यहाँ ‘व्यवसाय’ का अर्थ है – दृढ़ निश्चय।
किसी भी आध्यात्मिक या सांसारिक मार्ग में सफलता के लिए एकाग्रता और स्पष्टता आवश्यक है। अर्जुन जैसे योद्धा के लिए श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि यदि युद्ध को अपने धर्म और आत्मोन्नति के साधन के रूप में देखा जाए, तो मन को भ्रम में नहीं भटकाना चाहिए।
उदाहरण: जैसे सूर्य की किरणें जब लेंस से एक बिंदु पर केंद्रित होती हैं, तो आग उत्पन्न कर सकती हैं। वैसे ही, एकाग्र बुद्धि महान परिवर्तन ला सकती है।
2. ‘बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयः’ – चंचल मन की दुर्बलता
जब बुद्धि चंचल होती है तो वह हर चीज में कुछ न कुछ पाने की लालसा करती है — नाम, यश, सुख, संपत्ति, सम्मान, भोग, तर्क आदि। यह चंचलता साधक को या जीवन में कर्म करने वाले व्यक्ति को किसी एक दिशा में प्रगति नहीं करने देती।
मन का उदाहरण: यह एक ऐसे वृक्ष की तरह है जिसकी शाखाएँ चारों ओर फैली हैं लेकिन जड़ें कमजोर हैं। ऐसे वृक्ष की कोई स्थिरता नहीं होती।
3. दार्शनिक दृष्टिकोण:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण “बुद्धियोग” के सिद्धांत की नींव रखते हैं। यहाँ स्पष्ट किया गया है कि आत्मा की मुक्ति के लिए कर्म आवश्यक है, लेकिन ऐसा कर्म जो लक्ष्य की ओर केंद्रित हो। बुद्धि जब एकलक्ष्य बन जाती है, तब जीवन का हर कार्य योग का रूप ले लेता है।
4. प्रतीकात्मक अर्थ:
- ‘एको लक्ष्य’ — आत्मसाक्षात्कार
- ‘बहुशाखा बुद्धि’ — इंद्रियों द्वारा उत्पन्न भटकाव
- ‘कुरुनन्दन’ — अर्जुन के माध्यम से मनुष्य को संबोधित किया जा रहा है
5. आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- जीवन में मन का संतुलन आवश्यक है।
- धर्म, सत्य, और कर्म को एक लक्ष्य मानकर कार्य करें।
- एक ही लक्ष्य को पकड़ने वाला व्यक्ति अंततः जीवन में सफलता, शांति और आत्मसंतोष प्राप्त करता है।
- लक्ष्यहीन या चंचल बुद्धि वाला व्यक्ति बाहरी आकर्षणों में ही फंस कर रह जाता है।
6. आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मेरी बुद्धि एक लक्ष्य पर केंद्रित है या मैं हर इच्छा के पीछे भागता रहता हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों को आत्मोन्नति के साधन के रूप में देखता हूँ या केवल लाभ की दृष्टि से?
क्या मेरा मन हर क्षण बदलता रहता है? यदि हाँ, तो क्या मैं उसे स्थिर करने के लिए साधना करता हूँ?
7. निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को एकाग्रता और निश्चय का महत्व बताते हैं। वे यह समझाते हैं कि युद्ध हो या जीवन — केवल वही विजयी होता है जिसकी बुद्धि स्पष्ट, लक्ष्य-सिद्ध और निश्चयवान होती है। मन का बहिर्मुख होना और विषयों की ओर भागना साधक को अपने वास्तविक स्वरूप से दूर कर देता है। इसीलिए, जो मनुष्य बुद्धियोग को अपनाकर एक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करता है, वही आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होता है।