Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 43

मूल श्लोक: 43

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥43॥

शब्दार्थ:

  • कामात्मानः — जिनकी आत्मा वासना से भरी हुई है
  • स्वर्गपराः — स्वर्ग को ही परम लक्ष्य मानने वाले
  • जन्मकर्मफलप्रदाम् — जन्म और कर्मों के फल देने वाली (विधियों को)
  • क्रियाविशेषबहुलाम् — विशेष क्रियाओं से परिपूर्ण (कर्मकांड)
  • भोग-ऐश्वर्य-गतिम् — भोग और ऐश्वर्य की ओर ले जाने वाली
  • प्रति — की ओर

वे वेदों के केवल उन्हीं खण्डों को महिमामण्डित करते हैं जो उनकी इन्द्रियों को तृप्त करे और वे उत्तम जन्म, ऐश्वर्य, इन्द्रिय तृप्ति और स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए आडम्बरयुक्त कर्मकाण्डों का पालन हैं।

विस्तृत भावार्थ:

इस श्लोक में श्रीकृष्ण पिछले श्लोक (2.42) की ही कड़ी को आगे बढ़ाते हैं और उन व्यक्तियों की प्रवृत्ति का वर्णन करते हैं जो केवल कर्मकांडों और भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं। ऐसे लोग स्वर्ग को ही अंतिम लक्ष्य मानते हैं और अपने जीवन की ऊर्जा केवल उन कर्मों में लगाते हैं जो उन्हें भोग और ऐश्वर्य दिला सकें।

वह कर्म जो आत्मशुद्धि और मोक्ष के लिए किया जाना चाहिए, वही कर्म उनके लिए केवल इन्द्रियसुख की सीढ़ी बन जाता है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

1. ‘कामात्मानः’ – इच्छाओं के अधीन व्यक्ति

‘काम’ अर्थात वासना, इच्छा। ‘आत्मानः’ यानी आत्मा। जब आत्मा कामनाओं से भर जाती है, तो उसका लक्ष्य केवल भोग और तृप्ति रह जाता है। ऐसे लोग धर्म का उपयोग आत्मविकास के लिए नहीं, बल्कि इच्छा-पूर्ति के साधन के रूप में करते हैं।

इनका धर्म केवल व्यापार बन जाता है: ‘मैं इतना दान दूँ, इतना यज्ञ करूँ, तो मुझे स्वर्ग, संतान, धन, सुख प्राप्त हो।’

2. ‘स्वर्गपराः’ – स्वर्ग को ही सर्वोच्च लक्ष्य मानने वाले

ये लोग सोचते हैं कि स्वर्ग ही जीवन की चरम उपलब्धि है, जहाँ पहुँचकर उन्हें सब इच्छित सुख मिलेगा। लेकिन श्रीकृष्ण यहाँ चेतावनी दे रहे हैं कि स्वर्ग अनित्य है — वहाँ जाना एक कर्मफल है, लेकिन वहाँ से फिर जन्म लेना होता है

स्वर्ग में भोग सीमित है, और समय के साथ वह समाप्त हो जाता है। इसलिए स्वर्ग भी संसार का ही हिस्सा है, मुक्ति नहीं।

3. ‘जन्मकर्मफलप्रदाम्’ – कर्मों के फल देने वाली विधियाँ

वेदों में बहुत-से ऐसे कर्म बताए गए हैं जो मनुष्य को अच्छे फल (जैसे धन, संतान, प्रतिष्ठा, स्वर्ग) प्रदान करते हैं। लेकिन वे कर्म भी बंधन का कारण बनते हैं यदि उनमें फल की आकांक्षा हो।

यहाँ श्रीकृष्ण इंगित कर रहे हैं कि जो व्यक्ति निष्काम कर्म नहीं करता, वह जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में ही उलझा रहता है।

4. ‘क्रियाविशेषबहुलाम्’ – विशेष विधियों से भरे हुए कर्मकांड

ये वे लोग हैं जो धार्मिक क्रियाओं की सूक्ष्मता, विधि, नियम, मंत्र आदि पर अत्यधिक ध्यान देते हैं, परंतु उस कर्म के पीछे का भाव, श्रद्धा और तत्त्वज्ञान भूल जाते हैं।

ऐसे लोग धर्म को रूढ़ियों और नियमों का संकलन मानते हैं, आत्मशुद्धि का साधन नहीं।

5. ‘भोगैश्वर्यगति प्रति’ – भोग और ऐश्वर्य की ओर ले जाने वाला मार्ग

इन सभी कर्मों का अंतिम उद्देश्य ऐसे लोगों के लिए केवल भौतिक सुख और वैभव होता है। धर्म उनके लिए आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि सांसारिक सुविधा प्राप्त करने का उपाय मात्र रह जाता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

श्रीकृष्ण इस श्लोक में धर्म और अधर्म के सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करते हैं। धर्म के भीतर रहते हुए भी कोई व्यक्ति कामना और मोह में फँस सकता है, यदि वह धर्म को केवल इच्छापूर्ति का साधन समझे।

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत आधुनिक भी है — आज भी कई लोग धार्मिक कर्म सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि कोई परेशानी न आए, व्यापार चले, संतान हो जाए, आदि। यह दृष्टिकोण आध्यात्मिक नहीं, व्यापारिक है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • कामात्मानः = कामनाओं में उलझे हुए
  • स्वर्गपराः = ऊपरी सुख की कामना करने वाले
  • क्रियाविशेषबहुलाम् = दिखावटी और अनावश्यक कर्मों में उलझे
  • भोगैश्वर्यगति = आत्मा की नहीं, शरीर की उन्नति की कामना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:

  • धर्म का उद्देश्य भोग नहीं, योग होना चाहिए।
  • कर्मकांड तब तक उपयोगी हैं जब तक वे अहंकार और फल-इच्छा से रहित हों।
  • स्वर्ग की आकांक्षा भी बंधन का ही रूप है, मुक्ति नहीं।
  • किसी भी धार्मिक क्रिया का मूल्य उसके भाव, श्रद्धा और उद्देश्य में होता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं धार्मिक कर्म इसलिए करता हूँ कि मुझे कोई लाभ मिले?
क्या मेरा ध्यान सिर्फ क्रियाओं पर है या मैं उनके पीछे का तत्त्व समझने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं स्वर्ग और भोग की कामना में ही धर्म निभा रहा हूँ?
क्या मेरा धर्म आत्मा की उन्नति के लिए है या इच्छाओं की पूर्ति के लिए?

निष्कर्ष:

श्रीकृष्ण का यह श्लोक केवल बाह्य धार्मिकता पर नहीं, बल्कि धर्म के गूढ़ उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करने की प्रेरणा देता है। जब धर्म भोग और स्वर्ग की प्राप्ति का साधन बन जाए, तो वह आत्मा को उन्नति नहीं, बंधन की ओर ले जाता है।

सच्चा धर्म वह है जो मनुष्य को कामनाओं से मुक्त कर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाए। इसलिए श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं — कर्म करें, पर निष्काम होकर; धर्म निभाएँ, पर आत्मज्ञान के लिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *